Saturday, May 17, 2014

दैनिक पूजा नियम​


      आचार्य राकेश तिवारी
नित्य के नियम- दैनिक क्रिया के क्रम में ब्रह्म मुहूर्त में जग जाना चाहिये। अत्यन्त विवशताओं को छोड़कर अधिक समय तक सोना निषिद्ध है। 
  • करावलोकन (कर दर्शन​) 
प्रात​: उठकर अपने दोनों हाथों को सामने फैलाकर निम्न श्लोक पढ़ते हुए अपने हथेलियों का दर्शन करें ।

कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती 
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम्  ॥
  • पृथ्वी से क्षमा प्रार्थना
समुद्रवसने देवि! पर्वतस्तनमण्डले 
विष्णुपत्नि! नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥

अब शौच क्रिया इत्यादि करके स्नान करें! साफ वस्त्र पहन कर पूजा के लिए सामग्री अवलोकन करें ।
  • सामग्री
साफ ताजा जल,पुष्प​(फूल​), एक छोटा कपड़े का टुकड़ा, चावल, चन्दन​, धूपबत्ती, कपूर​प्रसाद के लिए मेवा, मिश्री, गरुण घण्टी, शंख, कुशा, तुलसी, पंचपात्र, हवन धूप, छोटा हवन कुण्ड​गाय के गोवर का उपला या आम की लकड़ी ।
  • सावधानीयाँ-

  1. चन्दन तांबे की कटोरी में न रखें
  2. फूल पानी में न रखें, फूल टूटे न हों 
  3. पूजा के वर्तन तांबे या पीतल के हों
  4. पूजा के समय लाल आसन(चटाई) में बैठें
  5. पूर्वजों की तस्वीर हमेसा उत्तर की दिवार में लगाएं।
  6. पूजा के लिए हमेसा पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे
  7. घर में दो शंख रखने से कलह होता है! अत: एक शंख ही रखें।
  8. पूजा स्थान जहां देवी देवताओं के तस्वीर हैं वहां अपने पूर्वजों की तस्वीर न रखें।
  9. पूजा के समय साफ और धुले कपड़े पहनें! हो सके तो धोती, कुर्ते का उपयोग करें।
  10. पूजा में दो गणपतिजी, तीन शालिग्राम​, चार शिव लिंग न रखें! इनकी संख्या एक ही रहे तो लाभ मिलता है।

  • पूजन की सुरुआत

सर्वप्रथम हाथ जोड़ कर अपने इष्टदेव का ध्यान करें। आपके इष्टदेव यदि भगवान विष्णु हैं, तो भगवान​विष्णु का, भगवान शिव हैं, तो भगवान शिव का, माता दुर्गा हैं, तो माता दुर्गा का! आँख बन्द करकेअपना मन उनपर केन्द्रित करके ध्यान करें ।  अब अपने गुरूदेव का ध्यान करें फिर अपने माता-पिता का ध्यान करें ।​ तद्पश्चात कुशा से जल लेकर अपने ऊपर सीचें, बाद में सामग्री पर​, फिर इस मंत्र से तीन बार जल पियें- ॐ केशवाय नम​:, ॐ माधवाय नम​:, नारायणाय नम​:।
हाथ धुलें-  ऋषिकेशाय नम​:।
  • ईष्टदेव की पूजा

पहले शुद्ध घी का एक दीपक जलाकर, दीपक के नीचे पांच दाने चावल के रखकर​चन्दन पुष्प से पूजा करें। अब अपने ईष्टदेव से प्रार्थना करें । हे! देव मैं आपकी सेवा करने में असमर्थ हूँ, फिर भी अपने कर्मानुशार​ आपको स्नान कराने जा रहा हूँ । आप मेरी यह सेवा स्वीकार करें ।  ऐसा निवेदन करते हुए ईष्टदेव की प्रतिमा को तांबे के एक पात्र में स्थापित कर स्नान करायें । इस  समय द्वादशाक्षर या पंचाक्षर या नवाक्षर मंत्र को मुख से उच्चारित करते जायें । स्नान कराने के बाद​ एक छोटे साफ कपड़े से प्रतिमा को हल्के हाथ से साफ करें । अब प्रतिमा को यथा स्थान स्थापित करें । अब ईष्टदेव के चरणों में शुगन्धित चन्दन का लेप लगायें, चावल को पानी से साफ करके दो दानें उनके चरणों में अर्पित करें, इसके बाद पुष्प चरणों में अर्पित करें । 

अब शुगन्धित धूप जलाकर  सबसे पहले चरणों की ओर तीन बार ऊदर में तीन बार ह्रदय में तीन बार​और मस्तक में तीन बार घुमाएं फिर पांच बार सर्वांग में घुमाएं । यही क्रम कपूर जलाके करें, या जो दीपक जल रहा है उसी से यह क्रिया कर सकते हैं । अब हाथ धुलकर पीतल की कटोरी में मिश्री, मेवारखें उसमें तुलसी का एक पत्र रखें और देव को निवेदित करें । निवेदित करके भोग प्रसाद के चारो ओर जल की धार दें, साथ ही गरुण घण्टी की ध्वनी करें । बाद में शंख बजायें । इस प्रकार भोग लगाकर आप चालीसा, कवच​, सूक्त आदि का पाठ करें । यदि श्लोक के अक्षरों को पढ़ने में कठिनाई हो रही हो तो रामायणजी का नित्य पांच दोहे का पाठ कर सकते हैं। अब देव को जल निवेदित करें, अब हमारे ईष्टदेव की सेवा में जो इन्द्रादि देवता हैं उन्हें पुष्ट कराने के लिए हवन कुण्ड में उपले या आम की लकड़ियों के द्वारा आग जलायें, चन्दन पुष्प चावल से अग्नीदेव की पूजा करें । हवन साकल्य​या धूप में काली तिल, जव, गुड़​, और घी, थोड़ा चावल मिलाकर आग में आहूती दें- गं गणपतये नम​: स्वाहा। ईष्टदेवताय नम​: स्वाहा। इन्द्राय नम​: स्वाहा। सूर्याय नम​: स्वाहा। सर्वदेवताभ्यो नम​: स्वाहा।

अब अपने गुरु मंन्त्र से भी तीन आहूती दें । बाद जल एक आचमनी जल​घुमायें ।  एक नया दीपक जलाकर देव की पुन: आरती उतारें ।आरती उतारने का अर्थ होता है; नजर या थकान को दूर करना, हमारे द्वारा हमारे ईष्टदेव को नजर​न लगे या भोग पाने से जो उन्हें थकान हुई, उसे दूर करने के लिए हम आरती करते हैं या नजर उतारते हैं ।

आरती उतारने के बाद एक आचमनी जल घुमादें, और हाथ जोड़कर देव से क्षमा प्रार्थना करें । अब जल​का पात्र लेकर सूर्यनारायण को जल दें, और गायत्री मंत्र का उच्चरण करें । ऐसी पूजा की वीधी नित्य करने से आपमें और आपके परिवार में धन​, ऐश्वर्य​, कीर्ती की कोई कमी नहीं रहेगी । पूजा की इस क्रिया का अपने में अभ्यास लायें, साथ ही अपने माता-पिता और गुरू जनों का आशिर्वाद लें। नित्य​उनके चरण स्पर्स करें, जिससे आपको एक न​ई उर्जा मिलेगी । गरीबों की  सहायता करें, अतिथीयों का स्वागत पहले जल देकर करें बाद में उनके आने का कारण पूछें! यही हमारे संस्कार हैं। 
  • कुछ निषेध बातें

  1. माता दुर्गा को दूब नहीं चढ़ाना चाहिए ।
  2. गणपती जी को तुलसी पत्र का भोग वर्जित है ।
  3. स्त्रियों को शंख नहीं बजाना चाहिए ।
  4. भगवान विष्णु को बिना तुलसी पत्र का भोग स्वीकार नहीं है ।
  5. स्त्रियाँ हनुमान चालीसा न पड़ें ऐसा किसी शास्त्र का आदेश नहीं, अत​: महिलाएं भी हनुमान चालीसा का पाठ कर सकती हैं । 


Thursday, May 15, 2014

पुरुषार्थ​



धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष! जीवन के ये चार उद्देश्य हैं। हममें से 

अधिकतर यह सोचते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति मृत्यु के समय होती है और जिसे मोक्ष मिल जाता है वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। जिन्हें मोक्ष नहीं मिलता उन्हें बार-बार जन्म लेना पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं है। जीते जी भी मोक्ष के आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। यह तब संभव है जब क्षणिक आनंद के क्षण स्थायी हो जाएं। हम सिर्फ और सिर्फ वर्तमान में जीना सीख लें। स्वयं को मोह-माया से मुक्त कर लें। 


सामान्य जिंदगी में भी ऐसे क्षण आते हैं जब परम हर्ष की अनुभूति होती है। चित्त और आत्मा एकीकृत हो जाते हैं। हमारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ वर्तमान पर टिका होता है। यह कुछ पल के लिए होता है। तंदा भंग होते ही हम फिर से वहीं होते हैं। लेकिन अगर स्थायी तौर पर चित्त और आत्मा को एकाकार कर लिया जाए, मन पर अधिकार कर लिया जाए, इच्छाओं और अहंकार को जड़ कर दिया जाए तो स्थायी परम आनंद की अनुभूति संभव है। सांसारिक बाधाओं से विमुखता ही मोक्ष है। 

मोक्ष प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के समक्ष तीन बातें प्रकट होती हैं। सर्वप्रथम उन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि वे कौन हैं? यह विचार व्यक्ति के मन से भगवान और मनुष्य के बीच के भेद को मिटा देता है। भगवत गीता में इस स्थिति को सत्यप्रज्ञ का नाम दिया गया है। व्यक्ति को न तो कोई वस्तु बुरी लगती है और न ही कोई अच्छी। उसे न कहीं अंधेरा नजर आता है और न ही कहीं प्रकाश। इसका अर्थ यह है कि उसकी दृष्टि में समरूपता आ जाती है। 

दूसरा प्रकटीकरण अन्य के प्रति होता है कि अन्य कौन हैं? यह प्रकटीकरण मन से भेदभाव मिटाता है। सबों के प्रति उनमें एक स्नेह उत्पन्न होता है। यह विचार दो आत्माओं को जोड़ने का काम भी करता है, क्योंकि मैं और तू की भावना रहती ही नहीं। इसमें अहम रहित जुड़ाव होने के कारण यह आसानी से टूटता भी नहीं है। अतिथियों का सम्मान करना या लोगों का हाथ जोड़ कर अभिवादन करना इसी विचार का हिस्सा है। तीसरा विचार इन दो विचारों के मिश्रित रूप के ब्रह्मांड में फैलाव का है। अर्थात मोक्ष प्राप्त करने वाले व्यक्ति के विचारों में ब्रह्मांड का कण-कण समाहित हो जाता है। ये प्रकटीकरण उपनिषद में लिखे गए महावाक्य 'ईश्वर है, मैं ईश्वर हूं, आप ईश्वर हैं, सब ईश्वर हैं' के ही रूप हैं। 

अपने देश में आध्यात्मिक गुरुओं ने हजारों वर्ष पहले ही इस तथ्य को समझ लिया था। हमारे बड़े-बड़े संत महात्मा जीते जी सांसारिकता से मुक्ति पाने में सक्षम रहे हैं। वस्तुत: मोक्ष कुछ और नहीं, बल्कि चेतना और अवलोकन में बदलाव है। एक आध्यात्मिक गुरु के अनुसार जिसने यह जान लिया कि वह कौन है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अत: मोक्ष अंत नहीं, बल्कि नए जीवन की शुरुआत है। पूर्णता के साथ जीने का अहसास है। 

कुछ लोग सेक्स के दौरान, तो कुछ पुराने मित्रों से बातचीत या सिनेमा देख कर आनंद की अनुभूति करते हैं। लेकिन यह स्थायी नहीं होता। महत्व तो स्थायित्व का है। जो इसे स्थायी तौर पर प्राप्त कर लेते हैं, वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सत्यनिष्ठ बने रहते हैं। उनके विचार, कार्य और वाणी में एकरूपता रहती है। वे सिर्फ अंतरात्मा की संतुष्टि के लिए कार्य करते हैं। कभी किसी के प्रति कुविचार नहीं रखते। दूसरों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। इसमें उनका कोई स्वार्थ नहीं होता। बल्कि उन्हें इससे आंतरिक प्रसन्नता मिलती है। 

Sunday, May 11, 2014

शंख और शंखध्वनी का प्रभाव


शंख और शंखध्वनी का प्रभाव




 
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से कृष्णया लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं।
 
समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ। जिनमें सर्वप्र
 थम पूजित देव गणेश के आकर के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है। इसे प्रकृति का चमत्कार कहें या गणेश जी की कृपा की इसकी आकृति और शक्ति हू-ब-हू गणेश जी जैसी है। गणेश शंख प्रकृति का मनुष्य के लिए अनूठा उपहार है। निशित रूप से वे व्यक्ति परम सौभाग्यशाली होते हैं जिनके पास या घर में गणेश शंख का पूजन दर्शन होता है। भगवान गणेश सर्वप्रथम पूजित देवता हैं। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। उड़ीसा में जगन्नाथपुरी शंख-क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख सदृश है।शंख का सिर्फ़ धार्मिक वा देव लोक तक ही महत्त्व नहीं है। इसका वास्तु के रूप में महत्त्व भी माना जाता है।कहते है कि जिस घर में नियमित शंख ध्वनि होती है वहां कई तरह के रोगों से मुक्ति मिलती है। इनके पूजन से श्री समृद्धि आती है।शास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण का स्वरूप कहे जाने वाले माह मार्गशीर्ष में उन्हीं के पंचजन्य शंख की पूजा का विशेष महत्त्व है।

हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्यों?

कि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में शंख का महत्त्व अनादि काल से चला आ रहा है। शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है। कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं। जो भगवान कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर उन्हें अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। शंख में जल भरकर ऊँ नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।

उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर,मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। शंख की आकृति (उदर) के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं - दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है। शंख का उदर दक्षिण दिशा की ओर हो तो दक्षिणावृत्त और जिसका उदर बायीं ओर खुलता हो तो वह वामावृत्त शंख है। मध्यावृत्ति एवं दक्षिणावृति शंख सहज रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं। इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं। हिन्दुओं के 33 करोड़ देवता हैं। सबके अपने- अपने शंख हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है।
शंख हर युग में लोगों को आकर्षित करते रहे है। देव स्थान से लेकर युद्ध भूमि तक, सतयुग से लेकर आज तक शंखों का अपना एक अलग महत्त्व है। पूजा में इसकी ध्वनि जहाँ श्रद्धा वा आस्था का भाव जगाती है वहीं युद्ध भूमि में जोश पैदा करती है। रण भूमि में शंखों का पहली बार उपयोग देव-असुर संग्राम में हुआ था। देव दानवों के इस युद्ध में सभी देव-दानव अपने अपने शंखों के साथ युद्ध भूमि में आए थे। शंखों कि ध्वनि के साथ युद्ध शुरू होता और उसी के साथ ख़त्म होता था। तभी से यह माना जाता है कि हर देवी-देवता का अपना एक अलग शंख होता है।

साधारणत: मंदिर में रखे जाने वाले शंख उल्टे हाथ के तरफ खुलते हैं और बाज़ार में आसानी से ये कहीं भी मिल जाते हैं लेकिन क्या आपने कभी ध्यान से किसी लक्ष्मी के पूराने फोटो को ध्यान से देखा है इन चित्रो में लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है।

शंख नाद का प्रतीक है। नाद जगत में आदि से अंत तक व्याप्त है। सृष्टि का आरंभ भी नाद से ही होता है और विलय भी उसी में होता है। दूसरे शब्दों में शंख को ॐ का प्रतीक माना जाता है, इसलिए पूजा-अर्चना आदि समस्त मांगलिक अवसरों पर शंख ध्वनि की विशेष महत्ता है। हिन्दू संस्कृति में पूजा और अनुष्ठान के समय शंख बजाने की परंपरा है जो बहुत पुरानी है। जैन, बौद्ध, शाक्त, शैव, वैष्णवआदि सभी संप्रदायों में शंख ध्वनि शुभ मानी गई है। शंख ध्वनि किसी का ध्यान आकर्षित करने या कोई संकेत देने के लिए की जाती है। दूसरी बात ये कि क्योंकि शंख पानी से निकलता है और पानी को जीवन से जोड़ा जाता है इसलिए इसे जीवन का प्रतीक भी माना जाता है। तीसरा ये कि किसी राजदरबार में राजा के आगमन की सूचना शंख बजाकर दी जाती थी और सबसे प्रचलित शंख ध्वनि युद्ध के प्रारंभ और अंत की सूचना के लिए की जाती थी। महाभारत युद्ध में शंख ध्वनि की विशद चर्चा है। कई योद्धाओं के शंखों के नाम भी गिनाए गए हैं जिसमें कृष्ण के पांचजन्य शंख की विशेष महत्ता बताई गई है। जहां तक तीन बार शंख बजाने की परंपरा है वह आदि, मध्य और अंत से जुड़ी है। वैदिक मान्यता के अनुसार शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है। कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक माना जाता है। इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है।[4]

हमारे यहां शंख बजाना एक धार्मिक अनुष्ठान है। पूजा आरती, कथा, धार्मिक अनुष्टानों, हवन, यज्ञ आदि के आरंभ व अंत में भी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इसके पीछे धार्मिक आधार तो है ही, वैज्ञानिक रूप से भी इसकी प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है। और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है। शंख की पवित्रता और महत्त्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने की प्रथा शुरू की गई है। मंदिरों में नियमित रूप से और बहुत से घरों में पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत, कथा, जन्मोत्सव आदि अवसरों पर शंख बजाना एक शुभ परम्परा मानी जाती है। कहा जाता है कि शंख बजाने से घर के बाहर की आसुरी शक्तियां घर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाती हैं। पारद शिवलिंग, पार्थिव शिवलिंग एवं मंदिरों में शिवलिंगों पर रुद्राभिषेक करते समय शंख-ध्वनि की जाती है। आरती, धार्मिक उत्सव, हवन-क्रिया, राज्याभिषेक, गृह-प्रवेश, वास्तु-शांति आदि शुभ अवसरों पर शंख-ध्वनि से लाभ मिलता है। शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में सभी योद्धाओं ने युद्ध घोष के लिए अलग-अलग शंख बजाए थे। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया था। महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख को बजा कर युद्ध का जयघोष किया था। कहते है कि यह शंख जिसके पास होता है उसकी यश गाथा कभी कम नहीं होती। महाभारत के इसी युद्ध में अर्जुन ने देवदत्त नाम का शंख बजाया था। वहीं युधिष्ठिर के पास अनंत विजय नाम का शंख था, जिसे उन्होंने रण भूमि में बजाया था। इस शंख कि ध्वनि की ये विशेषता मानी जाती है कि इससे शत्रु सेना घबराती है और खुद कि सेना का उत्साह बढता है। भीष्म ने पोडरिक नामक शंख बजाया था। इस शंख की आवाज़ से कौरवों की सेना में हलचल मच गई थी। गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 15-19 में इसका वर्णन मिलता है --

पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर। नकुल सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।
काश्यश्च परमेष्वास शिखण्डी च महारथ। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजिताः।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।

अर्थात् श्रीकृष्ण भगवान ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्र शंख बजाया। कुंती-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख का नाद किया। इसके अलावा काशीराज, शिखंडी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंखों का नाद किया।

शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में [विष्णु] ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के पश्चात्‌ सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई।भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है। भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

Friday, May 9, 2014

पूजा के बर्तन किस धातु के


जाने पूर्ण पुण्य फल प्राप्ति के लिए पूजा के बर्तन किस धातु के होने चाहिए

हिन्दू धर्म में भगवान की पूजा के लिए कई प्रकार के बर्तनों का उपयोग किया जाता है। हिन्दू धर्म मे ऐसा माना जाता है कि जिस धातु से भगवान की पूजा निषेध बताई गई है और उस धातु से भगवान की  पूजा की जाती है तो पूर्ण पुण्य फल की प्राप्ति नहीं मिलती है। इस संबंध में भी शास्त्रों में कई नियम बताए गए हैं।

भगवान की पूजा एक ऐसा उपाय है जिससे जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याएं हल हो जाती हैं। पूजा में बर्तनों का भी काफी गहरा महत्व है। शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग धातु अलग-अलग फल देती है। इसके पीछे धार्मिक कारण के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी है। सोना, चांदी, पीतल और तांबे के बर्तनों का उपयोग शुभ माना गया है। जबकि, पूजन में लोहा और एल्युमीनियम धातु से निर्मित बर्तन वर्जित किए गए हैं।

पूजा में लोहा और एल्युमीनियम धातु से निर्मित बर्तन उपयोग क्यों वर्जित है, जाने इसका रहस्य ???

पूजा और धार्मिक क्रियाओं में लोहा, स्टील और एल्युमीनियम को शास्त्रों के अनुसार अपवित्र धातु माना गया है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती है। लोहे में हवा और पानी से जंग लग जाता है और एल्युमीनियम से भी कालिख निकलने लगती है। जो कि हमारे स्वास्थय के लिए हानिकारक होती हैं। पूजन में कई बार मूर्तियों को हाथों से स्नान कराया जाता है, उस समय मूर्तियों को रगड़ा भी जाता है। ऐसे में लोहे और एल्युमीनियम से निकलने वाली जंग और कालिख का हमारी त्वचा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम को पूजा में निषेध माना गया है। पूजा में सोने, चांदी, पीतल, तांबे के बर्तनों का उपयोग करना चाहिए। इन धातुओं को रगड़ना हमारी त्वचा के लिए भी बहुत लाभदायक रहता है।

शिव मंत्र की शक्ति



हिन्दू धर्म में भगवान शिव की महिमा अपरम्पार बताई है तथा शिवपुराण के अनुसार भगवान शंकर का सर्वाधिक प्रभावी एवं सरल पंचाक्षर मंत्र-   नमः शिवाय है। यह मंत्र सभी के लिए लाभदायी होता है। नम: शिवाय के जप में कोई जटिलता नहीं है। इससे पंचतत्वों से निर्मित मानव देह की शुद्धि होती है तथा बड़े से बड़े संकट का निवारण बड़ी सरलता से हो जाता है।  इनकी उपासना करने से सारे कष्ट दूर होते हैं और भक्त निर्भय हो जाता है।
शिव पंचाक्षर स्त्रोत:-


नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे “न” काराय नमः शिवायः॥


हे महेश्वर! आप नागराज को हार स्वरूप धारण करने वाले हैं। हे (तीननेत्रों वाले) त्रिलोचन आप भष्म से अलंकृत, नित्य (अनादि एवं अनंत) एवं शुद्ध हैं। अम्बर को वस्त्र सामान धारण करने वाले दिग्म्बर शिव, आपके न् अक्षर द्वारा जाने वाले स्वरूप को नमस्कार ।


मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय ।
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे “म” काराय नमः शिवायः॥


चन्दन से अलंकृत, एवं गंगा की धारा द्वारा शोभायमान नन्दीश्वर एवं प्रमथनाथ के स्वामी महेश्वर आप सदामन्दार पर्वत एवं बहुदा अन्य स्रोतों से प्राप्त्य पुष्पों द्वारापुजित हैं। हे म् स्वरूप धारी शिव, आपको नमन है।


शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै”शि” काराय नमः शिवायः॥


हे धर्म ध्वज धारी, नीलकण्ठ, शि अक्षर द्वारा जाने जाने वाले महाप्रभु, आपनेही दक्ष के दम्भ यज्ञ का विनाश किया था। मां गौरी केकमल मुख को सूर्य सामान तेज प्रदान करने वाले शिव, आपको नमस्कार है।


वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय ।
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै”व” काराय नमः शिवायः॥


देवगणो एवं वषिष्ठ, अगस्त्य, गौतम आदि मुनियों द्वार पुजित देवाधिदेव! सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि आपके तीन नेत्र सामन हैं। हे शिव आपके व् अक्षरद्वारा विदित स्वरूप को नमस्कार है।


यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै “य” काराय नमः शिवायः॥


हे यज्ञस्वरूप, जटाधारी शिव आप आदि, मध्य एवं अंत रहित सनातन हैं। हे दिव्य अम्बर धारी शिव आपके शि अक्षर द्वारा जाने जाने वाले स्वरूप को नमस्कारा है।


पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेत शिव सन्निधौ| शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥


जो कोई शिव के इस पंचाक्षर मंत्र कानित्य ध्यान करता है वह शिव के पूण्य लोक को प्राप्त करता है तथा शिव के साथ सुख पूर्वक निवास करता है। भक्ति की जागृति के लिए भगवान शिव की, सद्गुरु की शरण जाना होगा। शिव राम की भक्ति देते हैं और भक्ति द्वारा जो लक्ष्य प्राप्त किया जाता है उसका नाम है मुक्ति।

Thursday, May 8, 2014

हवन से मिलती है शांति और समृद्धि



हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिन्दू धर्म में शुद्धिकरण का एक कर्मकांड है। कुंड में अग्नि के माध्यम से देवता के निकट हवि पहुंचाने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। 

हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं।) हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। 

ऐसा माना जाता है कि यदि आपके आसपास किसी बुरी आत्मा इत्यादि का प्रभाव है तो हवन प्रक्रिया इससे आपको ‍मुक्ति दिलाती है। शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है।

हवन कुंड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवास स्थान।
प्राचीन काल में कुंड चौकोर खोदे जाते थे। उनकी लंबाई, चौड़ाई समान होती थी। यह इसलिए कि उन दिनों भरपूर समिधाएं प्रयुक्त होती थीं। 

घी और सामग्री भी बहुत-बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचंडता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था। उस‍ स्थिति में चौकोर कुंड ही उपयुक्त थे। पर आज समिधा, घी, सामग्री सभी में अत्यधिक महंगाई के कारण किफायत करती पड़ती है। 

ऐसी दशा में चौकोर कुंडों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्‍छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती। ऊपर तक भरकर भी वे नहीं आते तो कुरूप लगते हैं। अतएव आज की स्थिति में कुंड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें। लंबाई-चौड़ाई, गहराई समान हो।
कुंडों की संख्‍या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक होता है कि अधिक व्यक्तियों को कम समय में निर्धारित आहुतियां देना संभव हो। एक ही कुंड हो तो एक बार में 9 व्यक्ति बैठते हैं। 

यदि 1 ही कुंड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर 1 कलश की स्थापना होने से शेष 3 दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। प्रत्येक दिशा में 3 व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। 

यदि कुंडों की संख्या 5 है तो प्रमुख कुंड को छोड़कर शेष 4 पर 12-12 व्यक्ति भी बिठाए जा सकते हैं।

क्यों होता है पितृ दोष



क्यों होता है पितृ दोष




मनुष्य अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव का अनुभव करता है। लेकिन कुछ कष्ट एवं अभाव ऐसे होते हैं जिन्हें सहन करना असंभव हो जाता है। ज्योतिषी, वास्तुशास्त्री, तांत्रिक, मांत्रिक जो-जो कारण बतलाते हैं, उन्हें निर्मूल करने के लिए जो प्रयास किए जाते हैं, उनका लाभ कभी कम तथा कभी पूर्ण रूप से प्राप्त होता है। इन उपायों में एक है पितृ शांति।

  1. पितरों का विधिवत् संस्कार, श्राद्ध न होना।
  2. पितरों की विस्मृति या अपमान।
  3. धर्म विरुद्ध आचरण।
  4. वृक्ष, फल लदे, पीपल, वट इत्यादि कटवाना।
  5.  नाग की हत्या करना, कराना या उसकी मृत्यु का कारण बनना।
  6.  गौहत्या या गौ का अपमान करना।
  7. नदी, कूप, तड़ाग या पवित्र स्थान पर मल-मूत्र विसर्जन।
  8. कुल देवता, देवी, इत्यादि की विस्मृति या अपमान।
  9. पवि‍त्र स्थल पर गलत कार्य करना।
  10. पूर्णिमा, अमावस्या या पवित्र तिथि को संभोग करना।
  11. पूज्य स्त्री के साथ संबंध बनाना।
  12. निचले कुल में विवाह संबंध करना।
  13. पराई स्त्रियों से संबंध बनाना।
  14. गर्भपात करना या किसी जीव की हत्या करना।
  15. कुल की स्त्रियों का अमर्यादित होना।
  16. पूज्य व्यक्तियों का अपमान करना इत्यादि कई कारण हैं।
  17. संतान न होना, संतान हो तो विकलांग, मंदबुद्धि या चरित्रहीन अथवा होकर मर जाना।
  18. नौकरी, व्यवसाय में हानि, बरकत न हो।
  19. परिवार में ऐक्य न हो, अशांति हो।
  20. घर के सदस्यों में एक या अधिक लोगों का अस्वस्थ होना, इलाज करवाने पर ठीक न होना।
  21. घर के युवक-यु‍वतियों का विवाह न होना या विवाह में विलंब होना।
  22. अपनों के द्वारा धोखा दिया जाना।
  23. दुर्घटनादि होना, उनकी पुनरावृ‍त्ति होना।
  24. मांगलिक कार्यों में विघ्न होना।
  25. परिवार के सदस्यों में किसी को प्रेत-बाधा होना इ‍त्यादि।


  • श्राद्ध पक्ष में तर्पण, श्राद्ध इत्यादि करें।
  • पंचमी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा को पितरों के निमित्त दान इत्यादि करें।
  • घर में भगवत गीता पाठ विशेषकर 11वें अध्याय का पाठ नित्य करें।
  • पीपल की पूजा, उसमें मीठा जल तथा तेल का दीपक नित्य लगाएं। परिक्रमा करें।
  • हनुमान बाहुक का पाठ, रुद्राभिषेक, देवी पाठ नित्य करें।
  • श्रीमद् भागवत के मूल पाठ घर में श्राद्धपक्ष में या सुविधानुसार करवाएं।
  • गाय को हरा चारा, पक्षियों को सप्त धान्य, कुत्तों को रोटी, चींटियों को चारा नित्य डालें।
  • ब्राह्मण-कन्या भोज करवाते रहें।

अर्जुन में अहंकार

अर्जुन में अहंकार:  अर्जुन   में  अहंकार एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनकी इस भावना को श्रीकृष्ण ने समझ लिया। ए...

Wednesday, May 7, 2014

पति-स्तवनम्



पति-स्तवनम्

नमः कान्ताय सद्-भर्त्रे, शिरशछत्र-स्वरुपिणे।
नमो यावत् सौख्यदाय, सर्व-सेव-मयाय च।।
नमो ब्रह्म-स्वरुपाय, सती-सत्योद्-भवाय च।
नमस्याय प्रपूज्याय, हृदाधाराय ते नमः।।
सती-प्राण-स्वरुपाय, सौभाग्य-श्री-प्रदाय च।
पत्नीनां परनानन्द-स्वरुपिणे च ते नमः।।
पतिर्ब्रह्मा पतिर्विष्णुः, पतिरेव महेश्वरः।
पतिर्वंश-धरो देवो, ब्रह्मात्मने च ते नमः।।
क्षमस्व भगवन् दोषान्, ज्ञानाज्ञान-विधापितान्।
पत्नी-बन्धो, दया-सिन्धो दासी-दोषान् क्षमस्व वै।।
।।फल-श्रुति।।
स्तोत्रमिदं महालक्ष्मि, सर्वेप्सित-फल-प्रदम्।
पतिव्रतानां सर्वासाण, स्तोत्रमेतच्छुभावहम्।।
नरो नारी श्रृणुयाच्चेल्लभते सर्व-वाञ्छितम्।
अपुत्रा लभते पुत्रं, निर्धना लभते ध्रुवम्।।
रोगिणी रोग-मुक्ता स्यात्, पति-हीना पतिं लभेत्।
पतिव्रता पतिं स्तुत्वा, तीर्थ-स्नान-फलं लभेत्।।
१॰ पतिव्रता नारी प्रातः-काल उठकर, रात्रि के वस्त्रों को त्याग कर, प्रसन्नता-पूर्वक उक्त स्तोत्र का पाठ करे। फिर घर के सभी कामों से निबट कर, स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर, भक्ति-पूर्वक पति को सुगन्धित जल से स्नान करा कर शुक्ल वस्त्र पहनावे। फिर आसन पर उन्हें बिठाकर मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाए, सर्वांग में गन्ध का लेप कर, कण्ठ में पुष्पों की माला पहनाए। तब धूप-दीप अर्पित कर, भोजन कराकर, ताम्बूल अर्पित कर, पति को श्रीकृष्ण या श्रीशिव-स्वरुप मानकर स्तोत्र का पाठ करे।
२॰ कुमारियाँ श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु, श्रीशिव या अन्य किन्हीं इष्ट-देवता का पूजन कर उक्त स्तोत्र के नियमित पाठ द्वारा मनो-वाञ्छित पति पा सकती है।
३॰ प्रणय सम्बन्धों में माता-पिता या अन्य लोगों द्वारा बाधा डालने की स्थिति में उक्त स्तोत्र पाठ कर कोई भी दुखी स्त्री अपनी कामना पूर्ण कर सकती है।
४॰ उक्त स्तोत्र का पाठ केवल स्त्रियों को करना चाहिए। पुरुषों को ‘विरह-ज्वर-विनाशक, ब्रह्म-शक्ति-स्तोत्र’ का पाठ करना चाहिए, जिससे पत्नी का सुख प्राप्त हो सकेगा।

तन्त्र


     तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं। यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ (ष्ट्रन) इन दो धातुओं से बना है, अतः “विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना”- यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि ‘तन्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ- देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं। 
“सर्वेऽथा येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्।
इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते।।
‘जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही ‘तन्त्र’ है।’
तन्त्र-शास्त्रों के लक्षणों के विषय में ऋषियों ने शास्त्रों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार निम्न विषयों का जिस शास्त्र में वर्णन किया गया हो, उसको ‘तन्त्र-शास्त्र’ कहते हैं।
१॰ सृष्टि-प्रकरण, २॰ प्रलय-प्रकरण, ३॰ तन्त्र-निर्णय, ४॰ दैवी सृष्टि का विस्तार, ५॰ तीर्थ-वर्णन, ६॰ ब्रह्मचर्यादि आश्रम-धर्म, ७॰ ब्राह्मणादि-वर्ण-धर्म, ८॰ जीव-सृष्टि का विस्तार, ९॰ यन्त्र-निर्णय, १०॰ देवताओं की उत्पत्ति, ११॰ औषधि-कल्प, १२॰ ग्रह-नक्षत्रादि-संस्थान, १३॰ पुराणाख्यान-कथन, १४॰ कोष-कथन, १५॰ व्रत-वर्णन, १६॰ शौचा-शौच-निर्णय, १७॰ नरक-वर्णन, १८॰ आकाशादि पञ्च-तत्त्वों के अधिकार के अनुसार पञ्च-सगुणोपासना, १९॰ स्थूल ध्यान आदि भेद से चार प्रकार का ब्रह्म का ध्यान, २०॰ धारणा, मन्त्र-योग, हठ-योग, लय-योग, राज-योग, परमात्मा-परमेश्वर की सब प्रकार की उपासना-विधि, २१॰ सप्त-दर्शन-शास्त्रों की सात ज्ञान-भूमियों का रहस्य, २२॰ अध्यात्म आदि तीन प्रकार के भावों का लक्ष्य, २३॰ तन्त्र और पुराणों की विविध भाषा का रहस्य, २४॰ वेद के षङंग, २५॰ चारों उप-वेद, प्रेत-तत्त्व २६॰ रसायन-शास्त्र, रसायन सिद्धि, २७॰ जप-सिद्धि, २८॰ श्रेष्ठ-तप-सिद्धि, २९॰ दैवी जगत्-सम्बन्धीय रहस्य, ३०॰ सकल-देव-पूजित शक्ति का वर्णन, ३१॰ षट्-चक्र-कथन, ३२॰ स्त्री-पुरुष-लक्षण वर्णन, ३३ राज-धर्म, दान-धर्म, युग धर्म, ३४॰ व्वहार-रीति, ३५॰ आत्मा-अनात्मा का निर्णय इत्यादि।
विभिन्न ‘तन्त्र’-प्रणेताओं के विचार-द्वारा ‘तन्त्रों’ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-
१॰ श्री सदा-शिवोक्त तन्त्र, २॰ पार्वती-कथित तन्त्र, ३॰ ऋषिगण-प्रणीत तन्त्र ग्रन्थ। ये १॰ आगम , २॰ निगम, और ३॰ आर्ष तन्त्र कहलाते हैं।
यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है। इस प्रकार यह साधना-शास्त्र है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरुप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए ‘पटल, कवच, सहस्त्रनाम तथा स्तोत्र’- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है। इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार हैः-
(क) पटल – इसमें मुख्य रुप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देशन होता है। साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखलाया जाता है।
(ख) पद्धति – इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस प्रकार नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-प्रयोगों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।
(ग) कचव – प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते गुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कचव रुप में वर्णित होते हैं। जब ये ‘कचव’ न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शांत हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पश्चात् होता है। भूर्जपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।
(घ) सहस्त्रनाम – उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्त्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रुप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते है। ये नाम देवताओं के अति रहस्यपूर्ण गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्ध-मंत्ररुप होते हैं। इनका स्वतन्त्र अनुष्ठान भी होता है।
(ङ) स्तोत्र – आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रुप से स्तोत्रों में गुण-गान एवँ प्रार्थनाएँ रहती है; किन्तु कुछ सिद्ध स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पञ्जर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं। इनकी संख्या असंख्य है।
इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र ‘तन्त्र शास्त्र’ कहलाता है।

Monday, May 5, 2014

सुख-शान्ति मन्त्र


1.रोग-मुक्ति या आरोग्य-प्राप्ति मन्त्र
“मां भयात् सर्वतो रक्ष, श्रियं वर्धय सर्वदा। शरीरारोग्यं मे देहि, देव-देव नमोऽस्तुते।।”
विधि- ‘दीपावली’ की रात्री या ‘ग्रहण’ के समय उक्त मन्त्र का जितना हो सके, उतना जप करे। कम से कम १० माला जप करे। बाद में एक बर्तन में स्वच्छ जल भरे। जल के ऊपर हाथ रखकर उक्त मन्त्र का ७ या २७ बार जप करे। फिर जप से अभिमन्त्रित जल को रोगी को पिलाए। इस तरह प्रतिदिन करने से रोगी रोग मुक्त हो जाता है। जप विश्वास और शुभ संकल्प-बद्ध होकर करें।

2.रोग से मुक्ति हेतु
“ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षिय मामृतात् स्वः भूर्भुवः सः जूं ॐ हौं ॐ"।।

विधि- शुक्ल पक्ष में सोमवार को रात्रि में सवा नौ बजे के पश्चात् शिवालय में भगवान् शिव का सवा पाव दूध से दुग्धाभिषेक करें। तदुपरान्त उक्त मन्त्र की एक माला जप करें। इसके बाद प्रत्येक सोमवार को उक्त प्रक्रिया दोहरायें तथा दो मुखी रुद्राक्ष को काले धागे में पिरोकर गले में धारण करने से शीघ्र फल प्राप्त होगा।

‘‘ॐ नमो महा-विनायकाय अमृतं रक्ष रक्ष, मम फलसिद्धिं देहि, रूद्र-वचनेन स्वाहा’’

किसी भी रोग में औषधि को उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित कर लें, तब सेवन करें। औषधि शीघ्र एवं पूर्ण लाभ करेगी।

4.ग्रह-बाधा-शान्ति मन्त्र
“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं दह दह।”
विधि- सोम-प्रदोष से ७ दिन तक, माल-पुआ व कस्तुरी से उक्त मन्त्र से १०८ आहुतियाँ दें। इससे सभी प्रकार की ग्रह-बाधाएँ नष्ट होती है।

5.देव-बाधा-शान्ति-मन्त्र
“ॐ सर्वेश्वराय हुम्।”

विधि- सोमवार से प्रारम्भ कर नौ दिन तक उक्त मन्त्र का ३ माला जप करें। बाद में घृत और काले तिल से आहुति दे। इससे दैवी बाधाएँ दूर होती है और सुख-शान्ति प्राप्ति होती है।

6.सुख-शान्ति
१॰ कामाक्षा-मन्त्र
“ॐ नमः कामाक्षायै ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।”

विधि- उक्त मन्त्र का किसी दिन १०८ बार जप कर, ११ बार हवन करें। फिर नित्य एक बार जप करें। इससे सभी प्रकार की सुख-शान्ति होगी।

सर्व-कार्य-सिद्धि हेतु  मन्त्र“काली घाटे काली माँ, पतित-पावनी काली माँ, जवा फूले-स्थुरी जले। सई जवा फूल में सीआ बेड़ाए। देवीर अनुर्बले। एहि होत करिवजा होइबे। ताही काली धर्मेर। बले काहार आज्ञे राठे। कालिका चण्डीर आसे।”
विधिः- उक्त मन्त्र भगवती कालिका का बँगला भाषा में शाबर मन्त्र है। इस मन्त्र को तीन बार ‘जप’ कर दाएँ हाथ पर फूँक मारे और अभीष्ट कार्य को करे। कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त होगी। गलत कार्यों में इसका प्रयोग न करें।

मानस के सिद्ध ‘मन्त्र’


मानस के सिद्ध ‘मन्त्र’

श्री रामचरित मानस के सिद्ध ‘मन्त्र’

मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बाद अष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लिये नित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान की है-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।
अष्टांग हवन सामग्री
१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰ पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।
जानने की बातें-
जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिन हवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिन करना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुति में चौपाई आदि के अन्त में ‘स्वाहा’ बोल देना चाहिये।
प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एक सेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज न मिले तो उसके बदले नौजा या मिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध ४ आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।
हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का या कुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।
मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये। दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।
सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जल या कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करना चाहिये। रक्षा-रेखा न भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसके लिये अलग हवन करके करना होगा।
एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल न हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।
कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयों को पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।
१॰ विपत्ति-नाश के लिये
“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”
२॰ संकट-नाश के लिये
“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”
४॰ विघ्न शांति के लिये
“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”
५॰ खेद नाश के लिये
“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”
६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”
७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”
८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”
९॰ विष नाश के लिये
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”
१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”
११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”
१२॰ नजर झाड़ने के लिये
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”
१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”
१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”
१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”
१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”
१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’
१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”
१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”
२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”
२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”
२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”
२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”
२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”
२६॰ शत्रुतानाश के लिये
“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”
२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”
२८॰ विवाह के लिये
“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”
२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”
३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”
३१॰ आकर्षण के लिये
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”
३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”
३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥
३५॰ उत्सव होने के लिये
“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”
३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”
३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
३८॰ कातर की रक्षा के लिये
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”
३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥
४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”
४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”
४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”
४३॰ विरक्ति के लिये
“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”
४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”
४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”
४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”
४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”
४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”
४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”
५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”
५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”