Thursday, May 15, 2014

पुरुषार्थ​



धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष! जीवन के ये चार उद्देश्य हैं। हममें से 

अधिकतर यह सोचते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति मृत्यु के समय होती है और जिसे मोक्ष मिल जाता है वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। जिन्हें मोक्ष नहीं मिलता उन्हें बार-बार जन्म लेना पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं है। जीते जी भी मोक्ष के आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। यह तब संभव है जब क्षणिक आनंद के क्षण स्थायी हो जाएं। हम सिर्फ और सिर्फ वर्तमान में जीना सीख लें। स्वयं को मोह-माया से मुक्त कर लें। 


सामान्य जिंदगी में भी ऐसे क्षण आते हैं जब परम हर्ष की अनुभूति होती है। चित्त और आत्मा एकीकृत हो जाते हैं। हमारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ वर्तमान पर टिका होता है। यह कुछ पल के लिए होता है। तंदा भंग होते ही हम फिर से वहीं होते हैं। लेकिन अगर स्थायी तौर पर चित्त और आत्मा को एकाकार कर लिया जाए, मन पर अधिकार कर लिया जाए, इच्छाओं और अहंकार को जड़ कर दिया जाए तो स्थायी परम आनंद की अनुभूति संभव है। सांसारिक बाधाओं से विमुखता ही मोक्ष है। 

मोक्ष प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के समक्ष तीन बातें प्रकट होती हैं। सर्वप्रथम उन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि वे कौन हैं? यह विचार व्यक्ति के मन से भगवान और मनुष्य के बीच के भेद को मिटा देता है। भगवत गीता में इस स्थिति को सत्यप्रज्ञ का नाम दिया गया है। व्यक्ति को न तो कोई वस्तु बुरी लगती है और न ही कोई अच्छी। उसे न कहीं अंधेरा नजर आता है और न ही कहीं प्रकाश। इसका अर्थ यह है कि उसकी दृष्टि में समरूपता आ जाती है। 

दूसरा प्रकटीकरण अन्य के प्रति होता है कि अन्य कौन हैं? यह प्रकटीकरण मन से भेदभाव मिटाता है। सबों के प्रति उनमें एक स्नेह उत्पन्न होता है। यह विचार दो आत्माओं को जोड़ने का काम भी करता है, क्योंकि मैं और तू की भावना रहती ही नहीं। इसमें अहम रहित जुड़ाव होने के कारण यह आसानी से टूटता भी नहीं है। अतिथियों का सम्मान करना या लोगों का हाथ जोड़ कर अभिवादन करना इसी विचार का हिस्सा है। तीसरा विचार इन दो विचारों के मिश्रित रूप के ब्रह्मांड में फैलाव का है। अर्थात मोक्ष प्राप्त करने वाले व्यक्ति के विचारों में ब्रह्मांड का कण-कण समाहित हो जाता है। ये प्रकटीकरण उपनिषद में लिखे गए महावाक्य 'ईश्वर है, मैं ईश्वर हूं, आप ईश्वर हैं, सब ईश्वर हैं' के ही रूप हैं। 

अपने देश में आध्यात्मिक गुरुओं ने हजारों वर्ष पहले ही इस तथ्य को समझ लिया था। हमारे बड़े-बड़े संत महात्मा जीते जी सांसारिकता से मुक्ति पाने में सक्षम रहे हैं। वस्तुत: मोक्ष कुछ और नहीं, बल्कि चेतना और अवलोकन में बदलाव है। एक आध्यात्मिक गुरु के अनुसार जिसने यह जान लिया कि वह कौन है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। अत: मोक्ष अंत नहीं, बल्कि नए जीवन की शुरुआत है। पूर्णता के साथ जीने का अहसास है। 

कुछ लोग सेक्स के दौरान, तो कुछ पुराने मित्रों से बातचीत या सिनेमा देख कर आनंद की अनुभूति करते हैं। लेकिन यह स्थायी नहीं होता। महत्व तो स्थायित्व का है। जो इसे स्थायी तौर पर प्राप्त कर लेते हैं, वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सत्यनिष्ठ बने रहते हैं। उनके विचार, कार्य और वाणी में एकरूपता रहती है। वे सिर्फ अंतरात्मा की संतुष्टि के लिए कार्य करते हैं। कभी किसी के प्रति कुविचार नहीं रखते। दूसरों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। इसमें उनका कोई स्वार्थ नहीं होता। बल्कि उन्हें इससे आंतरिक प्रसन्नता मिलती है। 

1 comment:

आचार्य राकेश तिवारी said...

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष! जीवन के ये चार उद्देश्य हैं। हममें से

अधिकतर यह सोचते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति मृत्यु के समय होती है और जिसे मोक्ष मिल जाता है वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। जिन्हें मोक्ष नहीं मिलता उन्हें बार-बार जन्म लेना पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं है। जीते जी भी मोक्ष के आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। यह तब संभव है जब क्षणिक आनंद के क्षण स्थायी हो जाएं। हम सिर्फ और सिर्फ वर्तमान में जीना सीख लें। स्वयं को मोह-माया से मुक्त कर लें।