Saturday, September 20, 2014

मन्त्र क्या है


मंत्र क्या है .....
मंत्र का अर्थ
मंत्र का अर्थ शास्त्रों में ‘मन: तारयति इति मंत्र:ऽ के रूप में बताया गया है, अर्थात मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है। वेदों में शब्दों के संयोजन से ऐसी ध्वनि उत्पन्न की गई है, जिससे मानव मात्र का मानसिक कल्याण हो। ‘बीज मंत्रऽ किसी भी मंत्र का वह लघु रूप है, जो मंत्र के साथ उपयोग करने पर उत्प्रेरक का कार्य करता है। यहां हम यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बीज मंत्र मंत्रों के प्राण हैं या उनकी चाबी हैं
जैसे एक मंत्र-‘श्रींऽ मंत्र की ओर ध्यान दें तो इस बीज मंत्र में ‘शऽ लक्ष्मी का प्रतीक है, ‘रऽ धन सम्पदा का, ‘ईऽ प्रतीक शक्ति का और सभी मंत्रों में प्रयुक्त ‘बिन्दुऽ दुख हरण का प्रतीक है। इस तरह से हम जान पाते हैं कि एक अक्षर में ही मंत्र छुपा होता है। इसी तरह ऐं, ह्रीं, क्लीं, रं, वं आदि सभी बीज मंत्र अत्यंत कल्याणकारी हैं। हम यह कह सकते हैं कि बीज मंत्र वे गूढ़ मंत्र हैं, जो किसी भी देवता को प्रसन्न करने में कुंजी का कार्य करते हैं
मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और "त्र " का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से !लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है !पुरुष मन्त्रों के अंत में "हूं फट " स्त्री मंत्रो के अंत में "स्वाहा " ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में "नमः " लगता है ! मंत्र साधना का योग से घनिष्ठ सम्बन्ध है......
मंत्रों की शक्ति--
मंत्रों की शक्ति तथा इनका महत्व ज्योतिष में वर्णित सभी रत्नों एवम उपायों से अधिक है।
मंत्रों के माध्यम से ऐसे बहुत से दोष बहुत हद तक नियंत्रित किए जा सकते हैं जो रत्नों तथा अन्य उपायों के द्वारा ठीक नहीं किए जा सकते।
ज्योतिष में रत्नों का प्रयोग किसी कुंडली में केवल शुभ असर देने वाले ग्रहों को बल प्रदान करने के लिए किया जा सकता है तथा अशुभ असर देने वाले ग्रहों के रत्न धारण करना वर्जित माना जाता है क्योंकि किसी ग्रह विशेष का रत्न धारण करने से केवल उस ग्रह की ताकत बढ़ती है, उसका स्वभाव नहीं बदलता। इसलिए जहां एक ओर अच्छे असर देने वाले ग्रहों की ताकत बढ़ने से उनसे होने वाले लाभ भी बढ़ जाते हैं, वहीं दूसरी ओर बुरा असर देने वाले ग्रहों की ताकत बढ़ने से उनके द्वारा की जाने वाली हानि की मात्रा भी बढ़ जाती है। इसलिए किसी कुंडली में बुरा असर देने वाले ग्रहों के लिए रत्न धारण नहीं करने चाहिएं।
वहीं दूसरी ओर किसी ग्रह विशेष का मंत्र उस ग्रह की ताकत बढ़ाने के साथ-साथ उसका किसी कुंडली में बुरा स्वभाव बदलने में भी पूरी तरह से सक्षम होता है। इसलिए मंत्रों का प्रयोग किसी कुंडली में अच्छा तथा बुरा असर देने वाले दोनो ही तरह के ग्रहों के लिए किया जा सकता है।
साधारण हालात में नवग्रहों के मूल मंत्र तथा विशेष हालात में एवम विशेष लाभ प्राप्त करने के लिए नवग्रहों के बीज मंत्रों तथा वेद मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए।
मंत्र जाप-
मंत्र जाप के द्वारा सर्वोत्तम फल प्राप्ति के लिए मंत्रों का जाप नियमित रूप से तथा अनुशासनपूर्वक करना चाहिए।
वेद मंत्रों का जाप केवल उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो पूर्ण शुद्धता एवम स्वच्छता का पालन कर सकते हैं।
किसी भी मंत्र का जाप प्रतिदिन कम से कम १०८ बार जरूर करना चाहिए। सबसे पहले आप को यह जान लेना चाहिए कि आपकी कुंडली के अनुसार आपको कौन से ग्रह के मंत्र का जाप करने से सबसे अधिक लाभ हो सकता है तथा उसी ग्रह के मंत्र से आपको जाप शुरू करना चाहिए।
बीज मंत्र-
ॐ कार मंत्र जैसे दूसरे २० मंत्र और हैं ।
उनको बोलते हैं बीज मंत्र ।
उसका अर्थ खोजो तो समझ में नही आएगा लेकिन अंदर की शक्तियों को विकसित कर देते हैं ।
सब बिज मंत्रो का अपना-अपना प्रभाव होता है ।
जैसे ॐ कार बीज मंत्र है ऐसे २० दूसरे भी हैं ।
ॐ बं ये शिवजी की पूजा में बीज मंत्र लगता है ।
ये बं बं.... अर्थ को जो तुम बं बं.....जो शिवजी की पूजा में करते हैं।
लेकिन बं.... उच्चारण करने से वायु प्रकोप दूर हो जाता है ।
गठिया ठीक हो जाता है । शिव रात्रि के दिन सवा लाख जप करो
बं..... शब्द, गैस ट्रबल कैसी भी हो भाग जाती है ।
खं.... हार्ट-टैक कभी नही होता है । हाई बी.पी., लो बी.पी. कभी नही
होता । ५० माला जप करें, तो लीवर ठीक हो जाता है ।
१०० माला जप करें तो शनि देवता के ग्रह का प्रभाव चला जाता है । खं शब्द ।
ऐसे ही ब्रह्म परमात्मा का कं शब्द है । ब्रह्म वाचक । तो ब्रह्म
परमात्मा के ३ विशेष मंत्र हैं । ॐ, खं और कं ।
ऐसे ही रामजी के आगे भी एक बीज मंत्र लग जाता है -
रीं रामाय नम:॥
कृष्ण जी के मंत्र के आगे बीज मंत्र लग जाता है -
क्लीं कृष्णाय नम: ॥
तो जैसे एक-एक के आगे, एक-एक के साथ मिंडी लगा दो तो १०
गुना हो गया ।
ऐसे ही आरोग्य में भी ॐ हुं विष्णवे नम: । तो हुं बिज मंत्र है ।
ॐ बिज मंत्र है । विष्णवे..., तो विष्णु भगवान का सुमिरन ।
ये आरोग्य के मंत्र हैं ।
महामृत्युंजय मंत्र : पूर्ण मंत्र एवम विधि-
(मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)
कहा जाता है कि यह मंत्र भगवान शिव को प्रसन्न कर उनकी असीम कृपा प्राप्त करने का माध्यम है… इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से आने वाली अथवा मौजूदा बीमारियां तथा अनिष्टकारी ग्रहों का दुष्प्रभाव तो समाप्त होता ही है, इस मंत्र के माध्यम से अटल मृत्यु तक को टाला जा सकता है…
हमारे चार वेदों में से एक ऋग्वेद में महामृत्युंजय मंत्र इस प्रकार दिया गया है…
ॐ त्र्यम्बकम यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥
इस मंत्र को संपुटयुक बनाने के लिए के लिए इसका उच्चारण इस प्रकार किया जाता है…
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुवः स्वः
ॐ त्र्यम्बकम यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्योर्मुक्षीय मामृतात॥
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ
इस मंत्र का अर्थ है : हम भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं… उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाए… जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं, तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाए!!! 

Thursday, September 18, 2014

दुर्गा पूजन​

1 उत्पत्ती
मां दुर्गा की पूजा त्रेता युग और द्वापर युग से चली आ रही है। सत्युग के सावर्णि मन्वन्तर में जब दैत्य महिषासुर ने प्रजापती ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर यह बर्दान प्राप्त किया, की उसकी मृत्यु किसी स्त्री से हो। ऐसा बर्दान प्राप्त कर वह स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया । सभीदेवता ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के पास सभी देवताओं को लेकर आये ।  देवताओं के मुख से उनके दु:ख का कारण जान भगवान विष्णु बोले- इस संकट​ से हमें भोलेनाथ ही  उबार सकते हैं, इस प्रकार सभी देवता मिल कर कैलाश पर्वत पर पहुँचे जहां भगवान शिव और माता पार्वती सदा विराजमान होते हैं। सभी देवताओं ने भगवान शिव और माता पार्वती को देख स्तुती करने लगे।

वंदे देवऽमापति सुरगुरुं वंदे जगत्कारणम् वंदे पन्नगभूषणं मृगधरं वंदे पशूनां पतिम्।
वंदे सूर्यशशांकवह्विनयनं वंदे मुकुंदप्रियम्, वंदे भक्तजनाश्रृयं च वरदं वंदे शिवं शंकरम्।

भगवान शिव ने जब सभी देवताओं के दु:ख को जान कर त्रिदेवों ने मिलकर एक दिव्य शक्ती को प्रकट किया ।

ॐ घण्टाशूलहलानि शड्खमुसले चक्रं धनु: सायकं हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

अपने हाथों मे घण्टा, शूल​, हल​, शड्ख, मूसल​, चक्र लिए माता भगवती प्रकट हुई। तब पराम्बा ने महालक्ष्मी महासरस्वती और माता पार्वती का आह्वाहन किया और अपनी शक्ती को एकत्रित कर दो-दो स्वरूपों को प्रकट किया। १ शैलपुत्री २ ब्रह्मचारिणी ३  चन्द्रघण्टा ४ कूष्माण्डा ५ स्कन्दमाता ६ कात्यायनी ७ कालरात्री ८ महागौरी ९ सिद्धिदात्री।
इस प्रकार नव दुर्गा मिलकर अपनी सेविका योगनियों का आह्वाहन कर उन दैत्यों का बध करना आरम्भकर दिया। सर्वप्रथम मधु और कैटभ का वध किया बाद में महिष दानव का वध किया और साथ ही शुम्भ निशुम्भ​,रक्त वीज नमक दैत्य का वध किया । और इस प्रकार देवताओं ने मिल कर माता जगदम्बा की स्तुती की -

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य​। 
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य​॥

दूसरी नवरात्री अश्विन माह में मनाया जाता है। देवीभागवतानुशार भगवान राम जी ने रावण को पराजित करने के लिए नवदिन तक व्रत करके माता दुर्गा को प्रशन्न कर लंका पर विजय प्राप्त किया, तभी से यह दिन विजयदशवी के नाम से प्रसिद्ध हुआ और इस प्रकार अश्विन माह के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक यह व्रत कर माता पराम्बा का कृपा प्राप्त की जाती है।

2 मंत्र
इस व्रत में नवार्ण मंत्र का जप (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुन्डायै विच्चै ) अवश्य करना चाहिए।
  साथ ही दुर्गा सप्तसती का पाठ करें।

क्यों करते हैं
मार्कण्डेय पुराणानुसार
स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भव​:। सुरथो नाम राजा भूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥
अर्थात​- स्वारोचिषमन्वन्तर में सुरथ नाम के एक राजा थे, जो चैत्र वंशमें उत्पन्न हुए थे। एक बार​ युद्ध में परास्त हुए और उनका सारा राज्य छीन लिया गया। तब वन में भटकते हुये राजा सुरथ मेधा मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। राजा ने अपना दुख मेधा मुनि को बताया तब उन्होंने माता दुर्गा के नवरात्रि व्रत रहने कहा इस प्रकार राजा उसी आश्रम में रहकर चैत्र की नवरात्रि व्रत को किया नौ दिन तक कठोर व्रत कर माता दुर्गा के प्राकट्य की महिमा श्रवण की, राज के इस व्रत से प्रसन्न हो माता भगवती प्रकट हो गई। राजा ने माता से  अपने दूसरे जन्म तक नष्ट न होने बाला राज्य मांगा साथ ही अपने सत्रुओं से अपना राज्य पुन​: प्राप्त करने का  आशिर्वाद मांगा । और इस प्रकार राजा ने पुन: अपना राज्य प्राप्त किया तभी से चैत्र माह की शुक्ल पक्ष में की प्रतिपदा से नवमी तक यह किया जाता है।

4 उच्चारण
दुर्गा सप्तसती का पाठ संस्कृत में करना उत्तम है, जिन्हें संस्कृत पढ़ना नहीं आता वे त्रुटियों से बचने के लिए हिन्दी का पाठ कर सकते हैं। पाठ करते समय पवित्रता का ध्यान रखें। उच्चारण स्पष्ट, शुद्ध हो यह भी ध्यान रखें।

5  पाठ संख्या
दुर्गासप्तसती का पाठ नौ दिनों में नौ पाठ पूरा करना चाहिए।
 कब करें
यह व्रत वर्ष में दो बार किया जाता है । एक चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक दूसरा अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक इस व्रत को मनाया जाता है।

मुहूर्त​
२५ सितम्बर दिन गुरुवार​ अश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रात:काल ०६ बजकर १४ मिनट से ०७ बजकर ५४ मिनट तक रहेगा इसके पश्चात दोपहर ११:४९ से १२:३६ मिनट तक के मध्य में भी घट स्थापना किया जा सकता है ।

कहां करें
यह व्रत आप घर में अथवा मन्दिर में कर सकते हैं ।

कैसे करें
सर्व प्रथम माता के पूजन में लगने बाले सामग्री को एकत्रित करें, माता का झांकी तैयार करें। व्रह्मण के द्वारा सोडषोप्चार विधी से पूजन करें। घट स्थापन करें। अखण्ड दीप का पूजन करें। दुर्गासप्तसती का नौ दिवस पर्यन्त पाठ करें।
10  पूजा विधी
पवित्र वस्त्र धारण कर माता की प्रतिमा के सम्मुख रक्तवर्णासन में वैठें। देह शुद्धी, अन्तर शुद्धी, आचमन, आसन शुद्धी, तिलक धारण, उपवीत धारण, ज्योति प्रज्वलन आदि से प्रारम्भ कर, माता गौरी,गणपती जी का ध्यान आह्वाहन पूजन करें, अब वरुण कलश​, मात्रिका, नवग्रह, पञ्चलोकपाल​, भैरवदेव और हनुमान जी का पूजन कर घटस्थपन संकल्प माता पराम्बा का आह्वाहन पूजन सोलह उपचारों से करें। अब सप्तसती पाठ का संकल्प कर विनयोग न्यास करने के बाद पाठ का प्रारम्भ करें। पाठ पूरा हो जाने पर आरती पुष्पाञ्जली कर क्षमा प्रार्थना करें।

11  सावधानीयाँ
व्रत के समय में चावल​, प्याज​, लहसुन का उपयोग भोजन में न करें

 झूठ​, ईर्शा, द्वेश, क्रोध से बचें। सयन के लिए चारपाई के स्थान पर भूमि का उपयोग करें।