Thursday, November 23, 2017

अग्नि

                -:अग्नि की उत्पत्ति तथा उनके माता पिता :-

श्री पार्वत्युवाच-कस्मिन् मासे कस्मिन् पक्षे कस्मिन तिथौ।
कस्मिन् वासरे कस्मिन् नक्षत्रे कस्मिन् लग्ने, उत्पनौ असौ।।2।।

एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये। शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया। तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र त तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।

श्री महादेव उवाच-
आषाढ़ मासे कृष्ण पक्षे, अर्द्ध रात्रौ मीन लग्ने चतुर्दश्यां शनि वासरे रोहिणी नक्षत्रे, उध्र्वमुखे दृष्ट पाताले अगोचरन्नामाग्नि।3।
श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई।

श्री पार्वत्युवाच-कातस्य माता क्वतस्य पिता क्वतस्य गोत्र। कति जिह्वा प्रकाशित।4।

श्री महादेव उवाच-अरणस माता वरूणष्पिता शाण्डिल्य गोत्रे। वनस्पति पुत्रम्, पावकनामकम् वसुन्धरम्। 5।

उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है? तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है?

श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है,  अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है। शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है। ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है।

चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिद्धा बद्धो वृषभोरोरवीति महादेवो मत्र्यां आविवेश।।6।।

इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान  यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है। इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है इसलिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है। जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है। इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

निखिल ब्रह्माण्डमुदरे यस्य द्वादश लोचनं सप्त जिह्वा।7। काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधुम्रवर्णा। स्फुलिंगिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वा।8।

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है। उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है ‘‘अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है। जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है। उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है। सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली,  कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा,  स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी  इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है। ,,

प्रथमस्तु घृतम् द्वितीये यवम्, तृतिये तिलम्, चतुर्थे दधि, पंचमें क्षीरम्। षष्ठे श्री खंडम्, सप्तमें मिष्ठान्नम् एतानि सप्त अग्नेर्भोजनानि। एतै सप्त जिह्वा प्रकाश्यन्ते। 9।

इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है। जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते हैं।

ऊध्र्व मुखाधोमुखाभिमुखैः साहायं करोति।
घृत मिष्ठान्नादि पदार्थाः। महा विष्णु मुखे प्रविशन्ति।
सर्वे देवा ब्रह्मा विष्णुः महेश्वरादयस्तृप्यन्ति।10।

भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं। इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।

Thursday, November 9, 2017

पंचमुखी हनुमान

हनुमान जी के पाँच मुख का अभिप्राय एवं पाँचों मुखों की भक्ति से होनेवाले लाभ ।।

मित्रों, कलियुग में पवनपुत्र हनुमान, मां भगवती और बाबा भोलेनाथ की पूजा-आराधना का विशेष एवं तत्काल फल प्राप्ति होना बताया गया है । भगवान शिव के अवतार हनुमान जी ऊर्जा के प्रतीक माने गये हैं । उनकी आराधना से बल, कीर्ति, आरोग्य और निर्भीकता प्राप्त होती है ।।

इनका विराट स्वरूप पाँच मुख पाँच दिशाओं में हैं । इनका सभी रूप एक-एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी और दो भुजाओं वाला है । यह पाँच मुख क्रमशः नरसिंह, अश्व, गरुड, वानर और वराह रूप का है । इनके पांच मुख पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और उर्ध्व दिशा में प्रतिष्ठित माने जाते हैं ।।

पूर्व की ओर का मुख वानर का हैं, जिसकी आभा करोडों सूर्यों के तेज के समान हैं । इनका पूजन करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है । पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का हैं, जो भक्तिप्रद, संकट निवारक माना गया हैं । गरुड की तरह इनको भी अजर-अमर माना गया हैं । उत्तर की ओर का मुख शूकर का है, इनकी आराधना करने से अपार धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, यश, दिर्धायु प्रदान करने वाला एवं उत्तम स्वास्थ्य देने में समर्थ माना गया हैं ।।

दक्षिणमुखी स्वरूप भगवान नृसिंह का है, जो भक्तों के भय, चिंता, परेशानी को दूर करता हैं । श्री हनुमान का उर्ध्व मुख घोडे के समान हैं, इनका यह स्वरुप ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर प्रकट हुआ था । मान्यता यह है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए थे । ऐसे पंचमुखी हनुमान रुद्र कहलाने वाले बडे कृपालु और दयालु माने गये हैं ।।

पंचमुखी हनुमान जी के स्वरुप के विषय में एक पौराणिक कथा मिलती है । एक बार पाँच मुख वाला एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ । उसने तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान माँगा कि मेरे रूप जैसा ही कोई व्यक्ति मुझे मार सके । ऐसा वरदान प्राप्त करके वह समग्र लोक में भयंकर उत्पात मचाने लगा । सभी देवताओं ने भगवान से इस कष्ट से छुटकारा मिलने की प्रार्थना की । तब प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, अश्व, गरुड और शूकर का पंचमुख स्वरूप धारण किया ।।

पंचमुखी हनुमान की पूजा-अर्चना से सभी देवताओं की उपासना के बराबर फल मिलता है । हनुमान जी के पाँचों मुखों में तीन-तीन सुंदर आंखें आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों प्रकार के तापों से छुटकारा दिलाने वाली हैं । श्री हनुमानजी का ये स्वरुप हम मनुष्यों के समस्त विकारों को दूर करने वाले माने गये हैं ।।

हम सभी भक्तों को शत्रुओं का नाश करने वाले तथा सभी मनोकामना को पूर्ण करनेवाले श्रीहनुमान जी महाराज का हमेशा स्मरण करना चाहिए । पंचमुखी हनुमान जी की उपासना से पूर्व में किए गए सभी बुरे कर्म एवं चिंतन के दोषों से मुक्ति मिलती हैं । पांच मुख वाले हनुमान जी की प्रतिमा धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी अद्भुत चमत्कारिक मानी गई है । अत: इनकी उपासना हर प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करनेवाला है ।।

Saturday, October 7, 2017

करवा चौथ

कथा
एक समय की बात है, सात भाइयों की एक बहन का विवाह एक राजा से हुआ। विवाहोपरांत जब पहला करवा चौथ आया, तो रानी अपने मायके आ गयी। रीति-रिवाज अनुसार उसने करवा चौथ का व्रत तो रखा किन्तु अधिक समय तक व भूख-प्यास सहन नहीं कर पर रही थी और चाँद दिखने की प्रतीक्षा में बैठी रही।
उसका यह हाल उन सातों भाइयों से ना देखा गया, अतः उन्होंने बहन की पीड़ा कम करने हेतु एक पीपल के पेड़ के पीछे एक दर्पण से नकली चाँद की छाया दिखा दी। बहन को लगा कि असली चाँद दिखाई दे गया और उसने अपना व्रत समाप्त कर लिया। इधर रानी ने व्रत समाप्त किया उधर उसके पति का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा।
यह समाचार सुनते ही वह तुरंत अपने ससुराल को रवाना हो गयी।रास्ते में रानी की भेंट शिव-पार्वती से हुईं। माँ पार्वती ने उसे बताया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है और इसका कारण वह खुद है। रानी को पहले तो कुछ भी समझ ना आया किन्तु जब उसे पूरी बात का पता चला तो उसने माँ पार्वती से अपने भाइयों की भूल के लिए क्षमा याचना की।

यह देख माँ पार्वती ने रानी से कहा कि उसका पति पुनः जीवित हो सकता है यदि वह सम्पूर्ण विधि-विधान से पुनः करवा चौथ का व्रत करें। तत्पश्चात देवी माँ ने रानी को व्रत की पूरी विधि बताई। माँ की बताई विधि का पालन कर रानी ने करवा चौथ का व्रत संपन्न किया और अपने पति की पुनः प्राप्ति की।

वैसे करवा चौथ की अन्य कई कहानियां भी प्रचलित हैं किन्तु इस कथा का जिक्र शास्त्रों में होने के कारण इसका आज भी महत्त्व बना हुआ है।द्रोपदी द्वारा शुरू किए गए करवा चौथ व्रत की आज भी वही मान्यता है। द्रौपदी ने अपने सुहाग की लंबी आयु के लिए यह व्रत रखा था और निर्जल रहीं थीं। यह माना जाता है कि पांडवों की विजय में द्रौपदी के इस व्रत का भी महत्व था।

इस व्रत में अपने वैवाहिक जीवन को समृद्ध बनाए रखने के लिए और अपने पति की लम्बी उम्र के लिए विवाहित स्त्रियाँ व्रत रखती हैं। यह व्रत सायंकाल में चन्द्रमा के दर्शन के पश्चात ही खोला जाता है।हिन्दू पंचांग के कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन यह व्रत किया जाता है। इस वर्ष 2017 में यह शुभ तिथि 08 अक्तूबर को मनाई जाएगी।

सभी विवाहित स्त्रियाँ इस दिन शिव-पार्वती की पूजा करती हैं। चूंकि शिव-पार्वती का पति-पत्नी के युगल रूप में धार्मिक महत्त्व है इसलिए इनके पूजन से सभी स्त्रियाँ पारिवारिक सुख-समृधि की कामना करती हैं।

करवा चौथ तिथि          :          08 अक्टूबर 2017, रविवार
करवा चौथ पूजा शुभ मुहूर्त  :      सायं 05:55 pm से 07:09 pm
चंद्रोदय समय             :               रात्रि  08:14 बजे
चतुर्थी तिथि प्रारंभ         :           16:58 (8 अक्तूबर 2017)
चतुर्थी तिथि समाप्त        :         14:16 (9 अक्तूबर 2017)

करवा चौथ: व्रत की पारम्परिक विधि के साथ जानें इससे जुड़ी प्रथाएं

सुहागिनें इस दिन सूर्योदय से पहले सुबह चार बजे के करीब शिव-परिवार की पूजा करके व्रत का संकल्प लेती हैं। वे नहा-धोकर सबसे पहले सासू मां के लिए बया निकालती हैं। ‘बया’ यानी एक थाली में फल, मिठाई, नारियल, कपड़े और सुहाग का सामान जैसे रिबन, चूडिय़ां, मेहंदी, सिंदूर, बिंदी आदि रख कर सासू मां को दिया जाता है और उनके पांव छूकर आशीर्वाद लिया जाता है। इसके बाद घर की औरतें ‘सरगी’ खाती हैं। सरगी के फल, मिठाई वगैरह सासू मां की तरफ से और लड़की के मायके की तरफ से भी भेजे जाते हैं। सरगी खाने के बाद पूरा दिन जब तक रात को चांद नहीं निकलता तब तक निर्जला रह कर औरतें व्रत रखती हैं। जब रात को चांद निकलता है तो वे अर्घ्य देकर पति के हाथों जल ग्रहण करती हैं और तब उनका व्रत सम्पूर्ण होता है।

करवाचौथ की मिठास से जन्म-जन्म तक बना रहे साथ करवा चौथ पर सास बहू को सरगी में दे ये सामान सास और बहू में प्यार बढ़ाती सरगी बॉलीवुड फिल्मों में इन दिनों जिस तरह से सरगी खाने के दृश्य दिखाए जाते हैं, उन्होंने इस मान्यता को बदला है कि सरगी व्रत से पहले मात्र पेट पूजा वाला फंडा नहीं है बल्कि शाम और रात की पूजा की तरह इसका भी बहुत महत्व है। सुबह जब सास और बहू एक साथ बैठ कर सरगी खाती हैं तो उनके बीच प्यार और स्नेह भरा रिश्ता भी मजबूत होता चला जाता है। कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष में कर्क चतुर्थी अर्थात करवाचौथ का व्रत सुहागिनें और अविवाहित युवतियां अपने पति एवं भावी जीवन साथी की मंगल कामना और दीर्घायु के लिए सारा दिन निर्जल रह कर रखती हैं। इस दिन न केवल चंद्र देवता की पूजा होती है अपितु भगवान शिव पार्वती और स्वामी कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है। इस दिन विवाहित महिलाओं और कुंवारी कन्याओं के लिए गौरी पूजन का भी विशेष महत्व है। इसके साथ ही श्री गणेश जी का पूजन भी किया जाता है।

सरगी में छिपा प्यार और आशीर्वाद
व्रत रखने वाली महिलाओं को उनकी सास सूर्योदय से पूर्व सरगी ‘सदा सुहागन रहो’ के आशीर्वाद के साथ देती हैं, जिसमें फल, मिठाई, मेवे, मट्ठियां, फेनियां, आलू से बनी कोई सब्जी एवं पूरी आदि होती हैं। यह खाद्य सामग्री शरीर को पूरा दिन निर्जल रहने और शारीरिक आवश्यकता को पर्याप्त ऊर्जा प्रदान करने में सक्षम होती है। फल में छिपा विटामिन युक्त तरल दिन में प्यास से बचाता है। फीकी मट्ठी ऊर्जा प्रदान करती है और रक्तचाप बढऩे नहीं देती। मेवे आने वाली सर्दी को सहने के लिए शारीरिक क्षमता बढ़ाते हैं।

ऐसे रखें पारम्परिक विधि से व्रत
प्रात: काल सूर्योदय से पूर्व उठ कर स्नान करके यह संकल्प बोल कर करवाचौथ व्रत का आरंभ करें :

‘मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये कर्क चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।’

पति, पुत्र तथा पौत्र के सुख एवं सौभाग्य की कामना की इच्छा का संकल्प लेकर निर्जल व्रत रखें। भगवान शिव, पार्वती, गणेश एवं कार्तिकेय की प्रतिमा या चित्र का पूजन करें। बाजार में मिलने वाला करवाचौथ का चित्र या कैलेंडर पूजा स्थान पर लगा लें। चंद्रोदय पर अर्घ्य दें। पूजा के बाद तांबे या मिट्टी के करवे में चावल, उड़द की दाल भरें। सुहाग की सामग्री में कंघी, सिंदूर, चूडिय़ां, रिबन तथा रुपए आदि रख कर दान करें। सास के चरण छू कर आशीर्वाद लें और फल, फूल, मेवा, मिष्ठान, सुहाग सामग्री, 14 पूरियां तथा खीर आदि उन्हें भेंट करें। विवाह के प्रथम वर्ष तो यह परम्परा सास के लिए अवश्य निभाई जाती है। इससे सास-बहू का रिश्ता और मजबूत होता है।  

करवा खेलना
करवाचौथ के दिन शाम को सभी सुहागिनें खूब सज-धज कर एक नियत स्थान पर इकट्ठी होती हैं और गोल घेरे में बैठ कर अपनी पूजा की थाली एक-दूसरे के साथ बांटती हुई करवा के गीत गाती हैं। इसी दौरान पंडित जी महिलाओं को करवाचौथ की कथा सुनाते हैं।

व्रत पर विशेष
इस अवसर पर दुकानों पर मीठी और फीकी मट्ठीयां तैयार की जाती हैं। ये मट्ठीयां विशेष तौर से बहू द्वारा अपनी सासू मां को बया देने पर दी जाती है। विवाहित स्त्रियां अपनी सुविधा अनुसार इस व्रत का उद्यापन भी करती हैं। वे उद्यापन करने के लिए एक थाली में चार-चार पूडिय़ां और हलवा रख कर सासू मां को देती हैं। इसके बाद तेरह ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा के साथ विदा करती हैं। उद्यापन के समय विवाहित स्त्री के मायके में कटोरियों या गिलासों में चावल और चीनी भर कर, फल, मेवे और सामर्थ्य के हिसाब से शगुन रख कर सामान सासू मां को भेजा जाता है। सास यह सामान आंचल ले आशीर्वाद दे।

Wednesday, October 4, 2017

पारद शिवलिंग

-:- पारद {पारा}शिवलिंग भगवान शिव का साक्षात् विग्रह है -:-
शिवलिंग को सोना, चांदी, तांबा, पारद आदि विभिन्न पदार्थों से बनाकर इसका पूजन-अर्चन किया जाता है, लेकिन इनमें से पारद शिवलिंग को विशेष महत्ता प्राप्त है। शास्त्रों में पारद शिवलिंग की अपार महिमा का वर्णन है। कहा गया है कि करोड़ों शिवलिंगों के पूजन से जो फल प्राप्त होता है, उससे भी करोड़ों गुना अधिक फल पारद शिवलिंग की पूजा-दर्शन से ही प्राप्त हो जाता है। हजारों ब्रह्म हत्याओं और सैकड़ों गौ हत्याओं के पाप पारद शिवलिंग के दर्शन मात्र से ही दूर हो जाते हैं। इसके स्पर्श से जहां मोक्ष की प्राप्ति होती है, वहीं इसकी पूजा-अर्चना से दैहिक, दैविक और भौतिक प्रगति होती है। यहां हम आपको बता रहे हैं ऐसे ही चमत्कारी पारद शिवलिंग के कुछ प्रमुख प्रयोग -

-  पारद शिवलिंग पर तीर्थ जल द्वारा नमक-चमक रुद्राभिषेक कराकर उस जल से लकवा के रोगी को स्नान कराने तथा वही जल पिलाने से कुछ ही दिनों में रोग दूर हो जाता है।

-  पारद शिवलिंग के रुद्राभिषिक्त जल द्वारा ब्लड कैंसर के रोगी को स्नान कराने तथा वही जल पिलाने और नित्य महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने से काफी लाभ होता है।

-  पारद शिवलिंग के रुद्राभिषिक्त जल से क्षय रोगी को नहलाएं, वही जल पिलाएं तथा 40 दिनों तक भगवान पारदेश्वर को 4-4 अमरूद चढ़ाकर रोगी को खिलाएं। क्षय रोग दूर हो जाएगा।

-  सालम मिश्री (कुंजे वाली) 3 माशा और मूसली 13 मासा दोनों को पीसकर आधा किलो दूध में डालकर खीर बनाएं। फिर पारद शिवलिंग को भोग लगाकर इसका सेवन करने से नपुंसकता का निवारण होता है।

-  जिस घर में पारद शिवलिंग होता है, उस घर की अनेक पीढिय़ों को ऋद्धि-सिद्धि और स्थायी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
-  जो साधक अपने घर में पारद शिवलिंग का नित्य दर्शन-पूजन करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर अनेक सिद्धियां और धन-धान्य प्राप्त कर पूर्ण सुख भोगता है।

-  'ब्रह्मवैवर्त पुराण' के अनुसार विधि- विधानपूर्वक पारद शिवलिंग का एक बार भी पूजन करने से जब तक सूर्य और चंद्र रहते हैं, तब तक पूर्ण सुख प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में धन, यश, मान, पद-प्रतिष्ठा तथा पुत्र-पौत्र आदि का अभाव नहीं होता।

-  पारद शिवलिंग की पूजा करने से आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा अन्य मनोवांछित वस्तुओं की प्राप्ति सहज ही हो जाती है।

-  प्रतिदिन प्रात:काल खाली पेट सवा किलो रुद्राभिषिक्त जल के साथ दो चम्मच त्रिफला चूर्ण खाने से स्त्रियों को प्रदर रोग, गर्भ संबंधी विकार तथा मासिक धर्म में गड़बड़ी आदि से छुटकारा मिल जाता है।

-  गर्भावस्था के आठवें एवं नौवें माह में स्त्री को प्रतिदिन रुद्राभिषिक्त जल पिलाने से सुखपूर्वक प्रसव होता है।

-  हृदय रोगी को रुद्राभिषिक्त जल पिलाने तथा उसके सीने पर वही जल लगाने से हृदयाघात की संभावना दूर हो जाती है।

-  'रसार्णव तंत्र' में कहा गया है कि जो व्यक्ति पारद शिवलिंग की एक बार भी पूजा कर लेता है, उसे इस जीवन में ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों प्रकार के पुरुषार्थों की प्राप्ति हो जाती है।

-  'रत्न समुच्चय' के अनुसार पारद शिवलिंग की नियमित रूप से आराधना करने पर समस्त रोगादि का नाश होता है।

-  'रसेंद्र चूड़ामणि' में कहा गया है कि रसलिंग (पारद शिवलिंग) के स्थान पर मात्र 'रस-रस' कहने से ही मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

- विशुद्ध तथा प्रबल ऊर्जावान पारद शिवलिंग का मात्र दर्शन करने वाला व्यक्ति कल्याणप्रद धर्म को प्राप्त होता है।

-  विशेष शास्त्रीय तथा तंत्रोक्त विधियों से बद्ध पारद द्वारा निर्मित शिवलिंग की नियमित पूजा-अर्चना करने वाला मनुष्य इस भौतिक जगत में प्रत्येक मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है।

Monday, August 21, 2017

श्री महासरस्वती सहस्त्रनाम स्तोत्रम

श्रीमच्चन्दनचर्चितोज्ज्वल वपु: शुक्लाम्बरा मल्लिका-
मालाललित कुन्तला प्रविलासन्मुक्तावलीशोभना ।
सर्वज्ञाननिधानपुस्तकधरा रुद्राक्षमालाङ्किता
वाग्देवी वदनाम्बुजे वसतु मे त्रैलोक्यमाता शुभा ॥1॥
नारद उवाच-
भगवन्परमेशान सर्वलोकैकनायक ।
कथं सरस्वती साक्षात्प्रसन्ना परमेष्ठिन: ॥2॥
कथं देव्या महावाण्या: सतत्प्राप सुदुर्लभम् ।
एतन्मे वद तत्वेन महायोगीश्वरप्रभो ॥3॥
सनत्कुमार उवाच -
साधु पृष्टं त्वया ब्रह्मनगुह्याद्गुह्य मनुत्तमम्।
भयानुगोपितं यत्नादिदानीं सत्प्रकाश्यते ॥4॥

पुरा पितमहं दृष्ट्वा जगत्स्थावरजङ्ग्मम् ।
निर्विकारं निराभासं स्तंभीभूतमचेतसम्॥5॥

सृष्ट्वा त्रैलोक्यमखिलं वागभावात्तथाविधम्।
आधिक्याभावत: स्वस्य परमेष्ठी जगद्गुरु: ॥6॥

दिव्यवर्षायुतं तेन तपो दुष्कर मुत्तमम् ।
तत: कदाचित्संजाता वाणी सर्वार्थशोभिता ॥7॥

अहमस्मि महाविद्या सर्ववाचामधीश्वरी ।
मम नाम्नां सहस्त्र तु उपदेक्ष्याम्यनुत्तमम् ॥8॥

अनेन संस्तुता नित्यं पत्नी तव भवाम्यहम्।
त्वया सृष्टं जगत्सर्वं वाणीयुक्तं भविष्यति ॥9॥

इदं रहस्यं परमं मम नामसहस्त्रकम्।
सर्वपापौघशमनं महासारस्वतप्रदम्॥10॥

महाकवित्वदं लोके वागीशत्वप्रदायकम् ।
त्वं वा पर: पुमान्यस्तुस्तवेनानेन तोषयेत् ॥11॥

तस्याहं किंकरी साक्षाद्भविष्यामि न संशय: ।
इत्युत्त्वान्तर्दधे वाणी तदारभ्य पितामह: ॥12॥

स्तुत्वा स्तोत्रेण दिव्येन तत्पतित्वमवाप्तवान् ।
वाणीयुक्तं जगत्सर्वं तदारभ्याभवन्मुने ॥13॥

तत्तेहं संप्रवक्ष्यामि शृणु यत्नेन नारद ।
सावधानमना भूत्वा क्षणं शुद्धो मुनीश्वर: ॥14॥

वाग्वाणी वरदा वन्द्या वरारोहा वरप्रदा ।
वृत्तीर्वागीश्वरी वार्ता वरा वागीशवल्लभा ॥1॥

विश्वेश्वरी विश्ववन्द्या विश्वेशप्रियकारिणी ।
वाग्वादिनी च वाग्देवि वृद्धिदा वृद्धिकारिणी ॥2॥

वृद्धिर्वृद्धा विषघ्नी च वृष्टिर्वृष्टिप्रदायिनी ।
विश्वाराध्या विश्वमाता विश्वधात्री विनायका ॥3॥

विश्वशक्तिर्विश्वसारा विश्वा विश्वविभावरी ।
वेदान्तवेदिनी वेद्या वित्ता वेदत्रयात्मिका ॥4॥

वेदज्ञा वेदजननी विश्वा विश्वविभावरी ।
वरेण्या वाङ्‍मयी वृद्धा विशिष्टप्रियकारिणी ॥5॥

विश्वतोवदना व्याप्ता व्यापिनी व्यापकात्मिका ।
व्याळघ्नी व्याळभूषांगी विरजा वेदनायिका ॥6॥

वेदवेदान्तसंवेद्या वेदान्तज्ञारूपिणी ।
विभावरी च विक्रान्ता विश्वामित्रा विधिप्रिया ॥7॥

वरिष्ठा विप्रकृष्टा च विप्रवर्यप्रपूजिता ।
वेदरूपा वेदमयी वेदमूर्तिश्च वल्लभा ॥8॥

गौरी गुणावती गोप्या गन्धर्वनगरप्रिया ।
गुणमाता गुहान्तस्था गुरुरूपा गुरुप्रिया ॥9॥

गिरिविद्या गानतुष्टा गायकप्रियकारिणी ।
गायत्री गिरिशाराध्या गीर्गिरीशपियंकरी ॥10॥

गिरिज्ञा ज्ञानविद्या च गिरिरूपा गिरीश्वरी ।
गीर्माता गणसंस्तुत्या गणनीयगुणान्विता ॥11॥

गूढरूपा गुहा गोप्या गोरूपा गौर्गुणात्मिका ।
गुर्वी गुर्वम्बिका गुह्या गेयजा गृहनाशिनी ॥12॥

गृहिणी गृहदोषघ्नी गवघ्नी गुरुवत्सला ।
गृहात्मिका गृहाराध्या गृहबाधाविनाशिनी ॥13॥

गङ्गा गिरिसुता गम्या गजयाना गुहस्तुता ।
गरुडासनसंसेव्या गोमती गुणशालिनी ॥14॥

शारदा शाश्वती शैवी शांकरी शंकरात्मिका ।
श्री: शर्वाणी शतघ्नी च शरच्चद्ननिभानना ॥15॥

शर्मिष्ठा शमनघ्नी च शतसाहस्त्ररूपिणी ।
शिवा शम्भुप्रिया श्रद्धा श्रुतिरूपा श्रुतिप्रिया ॥16॥

शुचिष्मती शर्मकरी शुध्दिदा शुद्धिरूपिणी ।
शिवा शिवंकरी शुद्धा शिवाराध्या शिवात्मिका ॥17॥

श्रीमती श्रीमयी श्राव्या श्रुति: श्रवणगोचरा ।
शान्ति: शान्तिकरी शान्ता शान्ताचारप्रियंकरी ॥18॥

शीललभ्या शीलवती श्रीमाता शुभकारिणी ।
शुभवाणी शुद्धविद्या शुद्धचित्तप्रपूजिता ॥19॥

श्रीकरी श्रुतपापघ्नी शुभाक्षी शुचिवल्लभा ।
शिवेतरघ्नी शबरी श्रवणीयगुणान्विता ॥20॥

शारी शिरीषपुष्पाभा शमनिष्ठा शमात्मिका ।
शमान्विता शमाराध्या शितिकण्ठप्रपूजिता ॥21॥

शुद्धि: शुद्धिकरी श्रेष्ठा श्रुतानन्ता शुभावहा ।
सरस्वती च सर्वज्ञा सर्वसिद्धिप्रदायिनी ॥22॥

सरस्वती च सावित्री संध्या सर्वेप्सितप्रदा ।
सर्वार्तिघ्नी सर्वमयी सर्वविद्याप्रदायिनी ॥23॥

सर्वेश्वरी सर्वपुण्या सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।
सर्वाराध्या सर्वमाता सर्वदेवनिषेविता ॥24॥

सर्वैश्वर्यप्रदा सत्या सती सत्वगुणाश्रया ।
स्वरक्रमपदाकारा सर्वदोषनिषूदिनी ॥25॥

सहस्त्राक्षी सहस्त्रास्या सहस्त्रपदसंयुता ।
सहस्त्रहस्ता साहस्त्रगुणालंकृतविग्रहा ॥26॥

सहस्त्रशीर्षा सद्रूपा स्वधा स्वाहा सुधामयी ।
षङ्ग्रन्थिभेदिनी सेव्या सर्वलोकैकपूजिता ॥27॥

स्तुत्या स्तुतिमयी साध्या सवितृप्रियकारिणी ।
संशयच्छेदिनी सांख्यवेद्या संख्या सदीश्वरी ॥28॥

सिद्धिदा सिद्धसम्पूज्या सर्वसिद्धिप्रदायिनी ।
सर्वज्ञा सर्वशक्तिश्च सर्वसम्पत्प्रदायिनी ॥29॥

सर्वाशुभघ्नी सुखदा सुखा संवित्स्वरूपिणी ।
सर्वसम्भीषणी सर्वजगत्सम्मोहिनी तथा॥30॥

सर्वपियंकरी सर्वशुभदा सर्वमङ्गला ।
सर्वमन्त्रमयी सर्वतीर्थपुण्यफलप्रदा ॥31॥

सर्वपुण्यमयी सर्वव्याधिघ्नी सर्वकामदा ।
सर्वविघ्नहरी सर्ववन्दिता सर्वमङ्गला ॥32॥

सर्वमन्त्रकरी सर्वलक्ष्मी: सर्वगुणान्विता ।
सर्वानन्दमयी सार्वज्ञानदा सत्यनायिका ॥33॥

सर्वज्ञानमयी सर्वराज्यदा सर्वमुक्तिदा ।
सुप्रभा सर्वदा सर्वा सर्वलोकवशंकरी ॥34॥

सुभगा सुन्दरी सिद्धा सिद्धाम्बा सिद्धमातृका ।
सिद्धमाता सिद्धविद्या सिद्धेशी सिद्धरूपिणी ॥35॥

सुरूपिणी सुखम्जयी सेवकप्रियकारिणी ।
स्वामिनी सर्वदा सेव्या स्थूलसूक्ष्मापराम्बिका ॥36॥

साररूपा सरोरूपा सत्यभूता समाश्रया ।
सितासिता सरोजाक्षी सरोजासनवल्लभा ॥37॥

सरोरुहाभा सर्वाङ्गी सुरेन्द्रदिप्रपूजिता ।
महादेवी महेशानी महासारस्वतप्रदा ॥38॥

महासरस्वती मुक्ता मुक्तिदा मलनाशिनी ।
महेश्वरी महानन्दा महामन्त्रमयी मही ॥39॥

महालक्ष्मीर्महाविद्या माता मन्दरवासिनी ।
मन्त्रगम्या मन्त्रमाता महामन्त्रफलप्रदा ॥40॥

महामुक्तिर्महानित्या महासिद्धिप्रदायिनी ।
महासिद्धा महामाता महदाकारसंयुता ॥41॥

महा महेश्वरी मूर्तिर्मोक्षदा मणिभूषणा ।
मेनका मानिनी मान्या मृत्युघ्नी मेरुरूपिणी ॥42॥

मदिराक्षी मदावासा मखरूपा मखेश्वरी ।
महामोहा महामाया मातृणां मूर्घ्निसंस्थिता ॥43॥

महापुण्या मुदावासा महासम्पत्प्रदायिनी ।
मणिपूरैकनिलया मधुरूपा महोत्कटा ॥44॥

महासूक्ष्मा महाशान्ता महाशान्तिप्रदायिनी ।
मुनिस्तुता मोहहन्त्री माधवी माधवप्रिया ॥45॥

मा महादेवसंस्तुत्या महिषीगणपूजिता ।
मृष्टान्नदा च माहेन्द्री महेन्द्रपददायिनी ॥46॥

मतिर्मतिप्रदा मेधा मर्त्यलोकनिवासिनी ।
मुख्या महानिवासा च महाभाग्यजनाश्रिता ॥47॥

महिला महिमा मृत्युहारी मेधाप्रदायिनी।
मेध्या महावेगवती महामोक्षफलप्रदा ॥48॥

महाप्रभाभा महती महादेवप्रियंकरी ।
महापोषा महर्द्धिश्च मुक्ताहारविभूषणा ॥49॥

माणिक्यभूषणा मन्त्रा मुख्यचन्द्रार्धशेखरा ।
मनोरूपा मन:शुद्धि: मन:शुद्धिप्रदायिनी ॥50॥

महाकारुण्यसम्पूर्णा मनोनमनवन्दिता ।
महापातकजालघ्नी मुक्तिदा मुक्तभूषणा ॥51॥

मनोन्मनी महास्थूला महाक्रतुफलप्रदा ।
महापुण्यफप्राप्या मायात्रिपुरनाशिनी ॥52॥

महानसा महामेधा महामोदा महेश्वरी ।
मालाधरी महोपाया महातीर्थफलप्रदा ॥53॥

महामङ्गलसम्पूर्णा महादारिद्र्यनाशिनी ।
महामखा महामेघा महाकाळी महाप्रिया ॥54॥

महाभूषा महादेहा महाराज्ञी मुदालया ।
भूरिदा भाग्यदा भोग्या भोग्यदा भोगदायिनी ॥55॥

भवानी भूतिदा भूति: भूमिर्भूमिसुनायिका ।
भूतधात्री भयहरी भक्तसारस्वतप्रदा ॥56॥
भुक्तिर्भुक्तिप्रदा भेकी भक्तिर्भक्तिप्रदायिनी ।
भक्तसायुज्यदा भक्तस्वर्गदा भक्तराज्यदा ॥57॥

भागीरथी भवाराध्या भाग्यासज्जनपूजिता ।
भवस्तुत्या भानुमती भवसागरतारणी ॥58॥

भूतिर्भूषा च भूतेशी फाललोचनपूजिता ।
भूता भव्या भविष्या च भवविद्या भवात्मिका ॥59॥

बाधापहारिणी बन्धुरूपा भुवनपूजिता ।
भवघ्नी भक्तिलभ्या च भक्तरक्षणतत्परा ॥60॥

भक्तार्तिशमनी भाग्या भोगदानकृतोद्यमा ।
भुजङ्गभूषणा भीमा भिमाक्षी भीमरूपिणी ॥61॥

भाविनी भ्रातृरूपा च भारती भवनायिका ।
भाषा भाषावती भीष्मा भैरवी भैरवप्रिया ॥62॥

भूतिर्भासितसर्वाङ्गी भूतिदा भूतिनायिका ।
भास्वती भगमाला च भिक्षादानकृतोद्यमा ॥63॥

भिक्षुरूपा भक्तिकरी भक्तलक्ष्मीप्रदायिनी ।
भ्रान्तिघ्ना भ्रान्तिरूपा च भूतिदा भूतिकारिणी ॥64॥

भिक्षणीया भिक्षुमाता भाग्यवद्दृष्टिगोचरा ।
भोगवती भोगरूपा भोगमोक्षफलप्रदा ॥65॥

भोगश्रान्ता भाग्यवती भक्ताघौघविनाशिनी ।
ब्राह्मी ब्रह्मस्वरूपा च बृहती ब्रह्मवल्लभा ॥66॥

ब्रह्मदा ब्रह्ममाता च ब्रह्माणी ब्रह्मदायिनी ।
ब्रह्मेशी ब्रह्मसंस्तुत्या ब्रह्मवेद्या बुधप्रिया ॥67॥

बालेन्दुशेखरा बाला बलिपूजाकरप्रिया ।
बलदा बिन्दुरूपा च बालसूर्यसमप्रभा ॥68॥

ब्रह्मरूपा ब्रह्ममयी ब्रध्नमण्डलमध्यगा।
ब्रह्माणी बुद्धिदा बुद्धिर्बुद्धिरूपा बुधेश्वरी ॥69॥

बन्धक्षयकरी बाधनाशनी बन्धुरूपिणी ।
बिन्द्वालया बिन्दुभूषा बिन्दुनादसमन्विता ॥70॥

बीजरूपा बीजमाता ब्रह्मण्या ब्रह्मकारिणी ।
बहुरूपा बलवती ब्रह्मजा ब्रह्मचारिणी ॥71॥

ब्रह्मस्तुत्या ब्रह्मविद्या ब्रह्माण्डाधिपवल्लभा ।
ब्रह्मेशविष्णुरूपा च ब्रह्मविष्ण्वीशसंस्थिता ॥72॥

बुद्धिरूपा बुधेशानी बन्धी बन्धविमोचनी ।
अक्षमालाक्षराकाराक्षराक्षरफलप्रदा ॥73॥

अनन्तानन्दसुखदानन्तचन्द्रनिभानना ।
अनन्तमहिमाघोरानन्तगम्भीरसम्मिता ॥74॥

अदृष्टादृष्टदानन्तादृष्टभाग्यफलप्रदा ।
अरुन्धत्यव्ययीनाथानेकसद्गुणसंयुता ॥75॥

अनेकभूषणादृश्यानेकलेखनिषेविता ।
अनन्तानन्तसुखदाघोराघोरस्वरूपिणी ॥76॥

अशेषदेवतारुपामृतरूपामृतेश्वरी ।
अनवद्यानेकहस्तानेकमणिक्यभूषणा ॥77॥

अनेकविघसंहर्त्री ह्यनेकाभरणान्विता ।
अविद्याज्ञानसंहर्त्री ह्यविद्याजालनाशिनी ॥78॥

अभिरूपानवद्याङ्गी ह्यप्रतर्क्यगतिप्रदा ।
अकळंकारूपिणी च ह्यनुग्रहपरायणा ॥79॥

अम्बरस्थाम्बरमयाम्बरमालाम्बुजेक्षणा ।
अम्बिकाजकराजस्थांशुमत्यंशुशतान्विता ॥80॥

अम्बुजानवराखण्डाम्बुजासनमहाप्रिया ।
अजरामरसंसेव्याजरसेवितपद्युगा ॥81॥

अतुलार्थप्रदार्थैक्यात्युदारात्वभयान्विता ।
अनाथवत्सलानन्तप्रियानन्तेप्सितप्रदा ॥82॥

अम्बुजाक्ष्यम्बुरूपाम्बुजातोभ्दवमहाप्रिया ।
अखण्डात्वमरस्तुत्यामरनायकपूजिता ॥83॥

अजेयात्वजसंकाशाज्ञाननाशिन्यभीष्टदा ।
अक्ताघनेना चास्त्रेशी ह्यलक्ष्मीनाशिनी तथा ॥84॥

अनन्तसारानन्तश्रीरनन्तविधिपूजिता ।
अभिष्टामर्त्यसम्पूज्या ह्यस्तोदयविवर्जिता ॥85॥

आस्तिकस्वान्तनिलयास्त्ररूपास्त्रवती तथा ।
अस्खलत्यस्खलद्रूपास्खलद्विद्याप्रदायिनी ॥86॥

अस्खलत्सिद्धिदानन्दाम्बुजातामरनायिका ।
अमेयाशेषपापघ्न्यक्षयसारस्वतप्रदा ॥87॥

जया जयन्ती जयदा जन्मकर्मविवर्जिता ।
जगत्प्रिया जगन्माता जगदीश्वरवल्लभा ॥88॥

जातिर्जया जितामित्रा जप्या जपनकारिणी ।
जीवनी जीवनिलया जीवाख्या जीवधारिणी ॥89॥

जाह्नवी ज्या जपवती जातिरूपा जयप्रदा ।
जनार्दनप्रियकरी जोषनीया जगत्स्थिता ॥90॥

जगज्ज्येष्ठा जगन्माया जीवनत्राणकारिणी ।
जीवातुलतिका जीवजन्मी जन्मनिबर्हणी ॥91॥

जाड्यविध्वंसनकरी जगद्योनिर्जयात्मिका ।
जगदानन्दजननी जम्बूश्च जलजेक्षणा ॥92॥

जयन्ती जङ्गपूगघ्नी जनितज्ञानविग्रहा ।
जटा जटावती जप्या जपकर्तृप्रियंकरी ॥ 93॥।

जपकृत्पापसंहर्त्री जपकृत्फलदायिनी ।
जपापुष्पसमप्रख्या जपाकुसुमधारिणी ॥94॥

जननी नन्मरहिता ज्योतिर्वृत्यभिदायिनी ।
जटाजूटनचन्द्रार्धा जगत्सृष्टिकरी तथा ॥95॥

जगत्त्राणकरी जाड्यध्वंसकर्त्री जयेश्वरी ।
जगद्वीजा जयावासा जन्मभूर्जन्मनाशिनी ॥96॥

जन्मान्त्यरहिता जैत्री जगद्योनिर्जपात्मिका ।
जयलक्षणसम्पूर्णा जयदानकृतोद्यमा ॥97॥

जम्भराद्यादिसंस्तुत्या जम्भारिफलदायिनी ।
जगत्त्रयहिता ज्येष्ठा जगत्त्रयवशंकरी ॥98॥

जगत्त्रयाम्बा जगती ज्वाला ज्वालितलोचना ।
ज्वालिनी ज्वलनाभासा ज्वलन्ती ज्वलनात्मिका ॥99॥

जितारातिसुरस्तुत्या जितक्रोधा जितेन्द्रिया ।
जरामरणशून्या च जनित्री जन्मनाशिनी ॥100॥

जलजाभा जलमयी जलजासनवल्लभा ।
जजस्था जपाराध्या जनमङ्गलकारिणी ॥101॥

कामिनी कामरूपा च काम्या कामप्रदायिनी ।
कमौळी कामदा कर्त्री क्रतुकर्मफलप्रदा ॥102॥

कृतघ्नघ्नी क्रियारूपा कार्यकारणरूपिणी ।
कञ्जाक्षी करुणारूपा केवलामरसेविता ॥103॥

कल्याणकारिणी कान्ता कान्तिदा कान्तिरूपिणी ।
कमला कमलावासा कमलोत्पलमालिनी ॥104॥

कुमुद्वती च कल्याणी कान्ति: कामेशवल्लभा ।
कामेश्वरी कमलिनी कामदा कामबन्धिनी ॥105॥

कामधेनु: काञ्चनाक्षी काञ्चनाभा कलानिधि: ।
क्रिया कीर्तिकरी कीर्ति: क्रतुश्रेष्ठा कृतेश्वरी ॥106॥

क्रतुसर्वक्रियास्तुत्या क्रतुकृत्प्रियकारिणी ।
क्लेशनाशकरी कर्त्री कर्मदा कर्मबन्धिनी ॥107॥

कर्मबन्धहरी कृष्टा क्लमघ्नी कञ्चलोचना ।
कन्दर्पजननी कान्ता करुणा करुणावती ॥108॥

क्लींकारिणी कृपाकारा कृपासिन्धु: कृपावती ।
करुणार्द्रा कीर्तिकरी कल्मषघ्नी क्रियाकरी ॥109॥

क्रियाशक्ति: कामरूपा कमलोत्पलगन्धिनी ।
कला कलावती कूर्मी कूटस्था कञ्जसंस्थिता ॥110॥

कालिका कल्मषघ्नी च कमनीयजटान्विता ।
करपद्मा कराभिष्टाप्रदा क्रतुफलप्रदा ॥111॥

कौशिकी कोशदा काव्या कर्त्री कोशेश्वरी कृशा ।
कूर्मयाना कल्पलता कालकूटविनाशिनी ॥112॥

कल्पोद्यानवती कल्पवनस्था कल्पकारिणी ।
कदम्बकुसुमाभासा कदम्बकुसुमप्रिया ॥113॥

कदम्बोद्यानमध्यस्था कीर्तिदा कीर्तिभूषणा ।
कुलमाता कुलावासा कुलाचारप्रियंकरी ॥114॥

कुलानाथा कामकला कलानाथा कलेश्वरी ।
कुन्दमन्दारपुष्पाभा कपर्दस्थितचन्द्रिका ॥115॥

कवित्वदा काव्यमाता कविमाता कलाप्रदा ।
तरुणी तरुणीताता ताराधिपसमानना ॥116॥

तृप्तीस्तृप्तिप्रदा तर्क्या तपनी तापिनी तथा ।
तर्पणी तीर्थरूपा च त्रिदशा त्रिदशेश्वरी ॥117॥

त्रिदिवेशी त्रिजननी त्रिमाता त्र्यम्बकेश्वरी ।
त्रिपुरा त्रिपुरेशानी त्र्यम्बका त्रिपुराम्बिका ॥118॥

त्रिपुरश्रीस्त्रयीरूपा त्रयीवेद्या त्रयीश्वरी ।
त्रय्यन्तवेदिनी ताम्रा तापत्रितयहारिणी ॥119॥

तमालसदृशी त्राता तरुणादित्यसन्निभा ।
त्रैलोक्यव्यापिनी तृप्ता तृप्तिकृत्तत्वरूपिणी ॥120॥

तुर्या त्रैलोक्यसंस्तुत्या त्रिगुणा त्रुगुणेश्वरी ।
त्रिपुरघ्नी त्रिमाता च त्र्यम्बका त्रुगुणान्विता ॥121॥
तृष्णाच्छेदकरी तृप्ता तीक्ष्णा तीक्ष्णस्वरूपिणी ।
तुला तुलादिरहिता तत्तद्भब्रह्मस्वरूपिणी ॥122॥

त्राणकर्त्री त्रिपापघ्नी त्रिपदा त्रिदशान्विता ।
तथ्या त्रिशक्तिस्त्रिपदा तुर्या त्रैलोक्यसुन्दरी ॥123॥

तेजस्करी त्रिमूर्त्याद्या तेजोरूपा त्रिधामता ।
त्रिचक्रकर्त्री त्रिभगा तुर्यातीतफलप्रदा ॥124॥

तेजस्विनी तापहारी तापोपप्लवनाशिनी ।
तेजोगर्भा तप:सारा त्रिपुरारिप्रियंकरी ॥125

तन्वी तापससंतुष्टा तपनाङ्गजभीतिनुत्‍ ।
त्रिलोचना त्रिमार्गा च तृतीया त्रिदशस्तुता ॥126॥

त्रिसुन्दरी त्रिपथगा तुरीयपददायिनी ।
शुभा शुभावती शान्ता शान्तिदा शुभदायिनी ॥127॥

शीतळा शूलिनी शीता श्रीमती च शुभान्विता ।
योगसिद्धिप्रदा योग्या यज्ञेनपरिपूरिता ॥128॥

यज्या यज्ञमयी यक्षी यक्षिणी यक्षिवल्लभा ।
यज्ञप्रिया यज्ञपूज्या यज्ञतुष्टा यमस्तुता ॥129॥

यामिनीयप्रभा याम्या यजनीया यशस्करी ।
यज्ञकर्त्री यज्ञरूपा यशोदा यज्ञसंस्तुता ॥130॥

यज्ञेशी यज्ञफलदा योगयोनिर्यजुस्तुता ।
यमिसेव्या यमाराध्या यमिपूज्या यमीश्वरी ॥131॥

योगिनी योगरूपा च योगकर्तृप्रियंकरी ।
योगमुक्ता योगमयी योगयोगीश्वराम्बिका ॥ 132॥

योगज्ञानमयी योनिर्यमाद्यष्टाङ्गयोगता ।
यन्त्रिताघौघसंहारा यमलोकनिवारिणी ॥133॥

यष्टिव्यष्टीशसंस्तुत्या यमाद्यष्टाङ्गयोगयुक्‍ ।
योगीश्वरी योगमाता योगसिद्धा च योगदा ॥134॥

योगारुढा योगमयी योगरूपा यवीयसी ।
यन्त्ररूपा च यन्त्रस्था यन्त्रपूज्या च यन्त्रिता ॥135॥

युगकर्त्री युगमयी युगधर्मविवर्जिता ।
यमुना यमिनी याम्या यमुनाजलमध्यगा ॥136॥

यातायातप्रशमनी यातनानान्निकृन्तनी ।
योगावासा योगिवन्द्या यत्तच्छब्दस्वरूपिणी ॥137॥

योगक्षेममयी यन्त्रा यावदक्षरमातृका ।
यावत्पदमयी यावच्छब्दरूपा यथेश्वरी ॥138॥

यत्तदीया यक्षवन्द्या यद्विद्या यतिसंस्तुता ।
यावद्विद्यामयी यवद्विद्यावृन्दसुवन्दिता ॥139॥

योगिहृत्पद्मनिलया योगिवर्यप्रियंकरी ।
योगिवन्द्या योगिमाता योगीशफलदायिनी ॥140॥

यज्ञवन्द्या यज्ञपूज्या यज्ञराजसुपूजिता ।
यज्ञरूपा यज्ञतुष्टा यायजूकस्वरूपिणी ॥141॥

यन्त्राराध्या यन्त्रमध्या यन्त्रकर्तृप्रियंकरी ।
यन्त्रारूढा यन्त्रपूज्या योगिध्यानपरायणा ॥142॥

यजनीया यमस्तुत्या योगयुक्ता यशस्करी ।
योगबद्धा यतिस्तुत्या योगज्ञा योगनायकी ॥143॥

योगिज्ञानप्रदा यक्षी यमबाधाविनाशिनी ।
योगिकाम्यप्रदात्री च योगिमोक्षप्रदायिनी ॥144॥
इति नाम्नां सरस्वत्या: सहस्त्रं समुदीरितम्।।

मन्त्रात्मकं महागोप्यं महासारस्वतप्रदम् ॥1॥
य: पठेच्छृणुयाद्भत्तया त्रिकालं साधक: पुमान् ।
सर्वविद्यानिधि: साक्षात्‍स एव भवति ध्रुवम्॥2॥

लभते संपद: सर्वा: पुत्रपौत्रादिसंयुता: ।
मूकोपि सर्वविद्यासु चतुर्मुख इवापर: ॥3॥

भूत्वा प्राप्नोति सान्निध्यं अन्ते धातुर्मुनीश्वर ।
सर्वमन्त्रमयं सर्वविद्यामानफलप्रदम्‍ ॥4॥

महाकवित्वदं पुंसां महासिद्धिप्रदायकम्‍।
कस्मैचिन्न प्रदातव्यं प्राणै: कण्ठगतैरपि ॥5॥

महारहस्यं सततं वाणीनामसहस्त्रकम्।
सुसिद्धमस्मदादीनां स्तोत्रं ते समुदीरितम्॥6॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणान्तर्गत सनत्कुमार सं