Thursday, February 2, 2023

Tuesday, March 15, 2022

Wednesday, May 5, 2021

यज्ञ संबंधी वस्तुओं के नाम

श्रौत-स्मार्त यज्ञों में विविध प्रयोजनों के लिये विभिन्न यज्ञ पात्रों की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार कुँड मंडप आदि को विधि पूर्वक निर्धारित माप के अनुसार बनाया जाता है, उसी प्रकार इन यज्ञ पात्रों को निश्चित वृक्षों के काष्ठ से, निर्धारित माप एवं आकार का बनाया जाता है। विधि पूर्वक बने यज्ञ पात्रों का होना यज्ञ की सफलता के लिये आवश्यक है। नीचे कुछ यज्ञ पात्रों का परिचय दिया जा रहा है। इनका उपयोग विभिन्न यज्ञों में, विभिन्न शाखाओं एवं सूत्र-ग्रन्थों के आधार पर दिया जाता है।

1.अन्तर्धानकट:—वारण काष्ठ का आध अंगुल मोटा, बारह अंगुल का अर्थ चन्द्राकार पात्र। गार्हपत्य कुँड के ऊपर पत्नी संयाज के समय देव पत्नियों को आढ़ करने के लिए इसका उपयोग होता है।

2. पशु-रशना:—तीन मुख वाली बारह हाथ की पशु बाँधने की रस्सी।

3. मयूख:—गूलर का एक अँगुज मोटा, बारह अँगुल का वत्स-बन्धन के लिये शकु मयूख होता है।

4. वसा हवनी:—पाक भाण्ड स्थित स्नेह-वसा हवन करने का जूहू सदृश घाऊ का स्रुक।

5. वेद:—दर्शपूर्णमासादि में 50 कुशाओं से रचित वेणी सदृश कुशमुष्टि।

6. कर्पूर:—चातुर्मास्यादि यज्ञ में बड़े गर्त्तवाला धान भूँजने का पात्र।

7. अनुष्टुव्धि:—जूहू सदृश पीपल का स्रुक।

8. विष्टुति:—उद्गाता द्वारा साम मन्त्रों की गिनती के लिये, नीचे चतुरस्र ऊपर गोल, दश अँगुल की शलाका।

9. पूर्ण पात्र:—दर्शादि इष्टि में यजमान के मुख धोने के लिये जल रखने की स्मार्त प्रोक्षणी।

10. शराव:—पायस रखने के लिए मृत्तिका का बड़े मुख एवं छोटे गर्त्त वाला पात्र।

11. उशकट:—सोम को रखने के लिए वारण काष्ठ का ढाई हाथ लम्बा त्रिकोण, डेढ़ हाथ चौड़ा दो हाथ ऊँचा शकट, जिसमें एक हाथ ऊँचे दो चक्र हों।

12. परिप्लवा:—कलश से सोमरस निकालने वाला काष्ठ का बना स्रुक, दस अँगुल लंबा हंसमुख सदृश नालीदार पाँच अँगुल गोलाई में बना हुआ।

13. पशुकुम्भी:—पशु श्रवण के लिये तैजस पात्र।

14. मुसल:—खैर काष्ठ का बना, मध्य में कुछ मोटा दस अँगुल का मूसल।

15. ऋतुग्रह पात्र:—काष्मरी या पीपल का बना प्रोक्षणी पात्र जिसमें हँसमुख सदृश नलिका होती हैं।

16. आज्यरथाली:—घृत गर्म करने का मृण्मय पात्र

17. उपवेष:—अँगारों को दूर करने के लिये वारण काष्ठ का बना हाथ के सदृश पाँच अँगुल बना हुआ दण्ड।

18. स्थली:—सोमरन रब्जे की सरामयी थाली।

19. इडावात्री:— ब्रह्मा, द्दोता, अध्वर्यु, अग्नीत् और यजमान के भाग रखा जाने वाला पात्र।

20. मेक्षण:—चरू इष्टि में इससे चरू का ग्रहण और होम होता है।

21. पृषदाज्य ग्रहणी:—पीपल का स्रुक, जिससे दधि मिश्रित थी ग्रहण किया जाता है।

22. प्रचरणी:—सोम यान में वैकंगत काष्ठ का बना जुहू सदृश स्रुक जिसका होम करने में उपयोग होता है।

23. परशु:—खदिर काष्ठ का बना हुआ परशु।

24. अग्निहोत्र हवणी:—श्रौत अग्निहोत्र में वंक काष्ठ का बना, जुहू के सदृश बाहुमात्र लंबा स्रुक।

25. अभ्रि:—वारण काष्ठ की बनी नुकीली अभ्रि का वेदी खनन में उपयोग होता है।

26. दोहन पात्र:—वैकंकत का प्रणाली रहित सदंड प्रोक्षणी पात्र सदृश आकार होता है।

27. दर्वी:—दंड सहित कलछी ही दर्वी है।

28. अधिषवण-फलक:—वारण काष्ठ के बने सोमलता कूटने का एक हाथ लम्बा, बारह अँगुल चौड़ा दो काष्ठ फलक होते हैं।

29. असिद:—कुशा काटने के लिये खैर का छुरा।

30. अन्वाहार्य पात्र:—दर्शपूर्ण-मास में, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और अग्नीघ्र को दक्षिणा में दिया जाने वाला ओदन जिस पात्र में पकाया जाता है।

31—ग्रावा:- पत्थर का बना सोलह अँगुल का मूसल, जिससे सोम लता कूटी जाती है।

32—उपभृत:- पीपल की जुहू सदृश स्रुक उपभृत होती है।

33—उत्पवन पात्र:- प्रोक्षणी पात्र सदृश होता है।

34—उपाँश सवन:- उपाँश नामक सोमलता को जिस पाषाण से कूटा जाता है।

35—उलूखल:- पलास,खैर, धारण का जानु प्रमाण ऊखल।

36—एक धन:- सोमरस को बढ़ाने वाले जल।

37—मूरशल:- वारण, पलास, खैर का दश अँगुल का मूरशल।

38—जुहू:- श्रौत कर्म में जिस स्रुक से हवन किया जाता है।

39—चमस:- चौकोर प्रणीता पात्र सदृश सोमरस को रखने, होम करने, और पानी के लिये चमस होते हैं। से दस भाँति के होते हैं।

40—यजमानाभिषेकासन्दी:- वाजपेय यज्ञ में यजमान को बैठने के लिये मूञ्ज की बिनी हुई एक हाथ लम्बी चौड़ी चतुष्कोण:- लघु खाट।

41—यूपरशना:- आठ हाथ लम्बी दूनी कुश की रस्सी, यूप में लपेटने के लिये यूपरशना होती है।

42—शृतावदान:- पितृ यज्ञ में पक्व पुरोडाश तोड़ने के लिये विकंकत-काष्ठ का होता है।

43—वूते भृत:- सोम रस धारण करने वाले स्वर्ण या मृण्मय-कलश।

44—पुरोडाश पात्री:- वारण काष्ठ की पुरोडाश के स्थान में प्रयुक्त होने वाली पात्री।

45—पिन्वन:- वारण का स्रुक मुख सदृश बना बिना दंड का पात्र।

46—पान्तेजन कलश:- पशु अंगों को प्रक्षालन करने का जल जिस कलश में रखा जाता है।

47—परिशास:- कलछी मुख के सदृश महावीर पात्र को पकड़ने लायक गूलर के बने पात्र।

48—सन्नहन:- इध्म और वर्हि बाँधने के लिये कुशा की वेण्याकार गूँथी रस्सी।

49—होतृ सदन:- वरना काष्ठ की बनी होता के बैठने की पीठ।

50—सोमा सन्दी:- गूलरकी बनी चार पाँवों वाली मुञ्ज की रस्सी से बीनी हुई सोम रखने के लिए बनी आसन्दी

51—सोम पर्याणहन:- वस्त्र से बन्धे सोम को ढाँकने का वस्त्र।

52—संभरणी:- वारण काष्ठ का बना सोम रखने का कटोरा।

53—शंकु:- गूलर का दश अँगुल लम्बा अग्निष्टोमादि यज्ञ में दीक्षिता पत्नी के कन्डूवनादि में उपयुक्त होने वाला।

54—उदत्रवन:- सोम याग में अम्भृण पात्रों से जल निकालने के लिये मिट्टी का पात्र (पुरवा)

55—उपयमनी:- उदुन्वर की दो हाथ लम्बी, स्रुकी के मुख से दूने मुख की, जुहू सदृश स्रुक।

56—इध्म:- पलाश की एक हाथ लम्बी, सीधी, सुन्दर त्वचा सहित,एक शाखा वाली समिधा।

57—वर्हि:- असंस्कृत तथा असंख्यात कुशा।

58—सम्भरण पात्र:- वाजपेय यज्ञ में हवन किये जाने वाले सत्रह प्रकार के अन्नों को जिस पात्र में रखा जाता है।

59—वाजिन भ्राण्ड:- फटे दूध के द्रव भाग (वाजिन) को जिस भाण्ड में रखा जाता है।

60—उपसर्जनी पात्र:- यजमान के लिये गार्हपत्य अग्नि में जल को इस पात्र में गर्म किया जाता है।

61—रौहिणपाल:- मृत्तिका का वता पकाया पात्र जो रौहिणक पुरोडाश पकाने के लिये बनाया जाता है।

62—योक्त्र:- दर्शपूर्ण मासादि यज्ञ में यजमान पत्नी के कटि प्रदेश में बाँधने के लिये तीन लड़ी, मुञ्ज की बनी वेणी सदृश रस्सी।

63—उद्गात्रासन्दी:- गवामयन यज्ञ में उद्गाता बैठने के एक हाथ लम्बी चौड़ी मुञ्ज से बिनी भीढ।

64—विघन:- पीपल का एक हाथ का शंक।

65—विकंकत शकल:- विकंकत काष्ठ की दश अँगुल समिधा।

66—दंड:- सोमयाग में यजमान तथा मैत्रावरुण के लिये मुख तक लम्बाई का गूलर का बना दंड।

67—दधि धर्म:- प्रर्ग्वयमें दस अंगुल का दधि को ग्रहण तथा हवन के लिये गूलर का बना पात्र।

68—दारुपात्री:- कात्यायनों की इड़ापात्री।

69—धवित्:- मृगचर्म से बना पंखा।

70—धृष्टि—अंगार-भस्मादि हटाने के लिये विकेकत काष्ठ का बना पात्र।

71—कृष्ण विषाणा-कृष्ण मृग का शृंग।

72—वाजिनचभस-फटे दूध के द्रव भाग को रखने का प्रणीता सदृश पात्र।

73—गलप्राही ताँबा या पीतल की एक हाथ की संड़सी।

74—स्रुक-विकंकत काष्ठ का बना बाहु प्रमाण लंबा हवन करने का हंसमुख सदृश चोंचदार पात्र।

75—यूप-खैर का बना लंबा शंकु। इसकी लंबाई भिन्न भिन्न यज्ञों में भिन्न भिन्न रखी जाती है।

76—ग्रह-विकंकत काष्ठ का बना उलूखल सदृश सोमरस तथा होमोपयोगी वस्तु रखने का पात्र।

77—स्फ्य-अग्रवेदी को खोदने रेखा करने के लिये एक हाथ लंबा चार अँगुल चौड़ा खैर काष्ठ का वज्र-दंड।

78—स्रुक—होम करने के लिये खैर काण्ड का बना गोल छिद्र संयुक्त एक हाथ लंबा पात्र।

79—ऋतु पात्र ग्रह कार्ष्मय:—पीपल के प्रोक्षपी पात्र सदृश दोनों तरफ हंसमुख सदृश सोमरस ग्रहण करने का पात्र।

80—प्रोक्षणधानी:- जुहू के सदृश बना स्रुक।

81—शूल—वारण काष्ठ का बना, अभ्रि सदृश शूल होता है।

82—प्राशिब्रहरण:- ब्रह्मा को हुत शेव, इस चार अँगुल लम्बे चौड़े वारण काष्ठ से बने चौकोर पात्र द्वारा दिया जाता है।

83—निश्रेणी:- वाजपेय यज्ञ में सत्रह हाथ यूव से ऊपर जाने के लिये धारण काष्ठ से बनी सीढ़ी।

84—नेत्र:- सन और गौपुच्छ के बालों से बनाई गयी चार हाथ की तीन लड़ वाली गूँथी हुई वेणी।

85—निदान:—सोमयाग में गौ तथा बछड़े को बाँधने के लिये बनी रस्सी।

86—चात्र उपमन्थ:- अरणि मन्थन के लिये आठ अँगुल का बना काष्ठ शंकु।

87—वषाल:- सोमयाग में पलास का दश अँगुल लम्बा एक अँगुल गोल-आर पार छिद्र वाला पात्र विशेष।

88—शभ्या:- दर्शपूर्ण मासादि में सिल लोटी के कुट्टन आदि में प्रयुक्त होने वाला पात्र विशेष।

89—षडवत्तपात्र:- अग्नीघ्र ऋत्विक् को भाग देने के लिये वारण काष्ठ का बना एक विशेष प्रकार का पात्र।

90—सगर्त्तपुरोडाशपात्री:- सर्वहुत पुरोडाश के स्थापन और होमादि में प्रयुक्त होने वाला पात्र।

91—स्वरु:- पशुलला स्पर्श एवं होमादि में प्रयुक्त होने वाला दश अँगुल का खड्गाकार पात्र।

92—स्थूण:- गौ बाँधने के लिये बनी खूँटी।

93—सोमोपनहन:- सोमलता बाँधे जाने वाले दौहरे चौहरे वस्त्र।

94—दृपत उपला:- पुरोडाश के पोषण में प्रयुक्त होने वाले दश अँगुल लम्बे आठ अँगुल चौड़े पाषाण।

95—करम्भ पात्री:- दक्षणाग्नि में पक्व सत्तु तथा दधि रखने का छोटे छोटे गोल पात्र।

96—पञ्चविलापात्री:- कृष्ण यजुर्वेदियों के काम आने वाला पात्र विशेष।

97—पिशीलक:- चातुर्मासान्तर्गत गृहमेधि में उपयोग होने वाला पायस रखने का धातु का बड़े मुख वाला पात्र।

98—परिवेचन घट:- आपस्तम्ब के लिये आधवनीय सदृश कलश।

99—त्रिविला पात्री:- वारण काष्ठ से बना एक विशिष्ट भाँति का बना पात्र।

100—दशा पवित्र:- जीवित भेड़ के ऊनों से बना सोमरस छानने के लिये बना हुआ छन्ना।

101—कूर्च:- सायं-प्रातः अग्निहोत्र के समय स्रुक रखने का वारण काष्ठ से बना पात्र विशेष।

102—ओबिली:- मन्थन दन्ड को दबाने के लिये खैर काष्ठ का बना उपमन्थ।

103-समित्:—पलासादि की दश अँगुल लम्बी सुन्दर अविशाखा लकड़ी।

104-महावीर:—सोमयाग में दीपक रखने के लिये मृत्तिका से बना एक विशिष्ट पात्र।

105—मेखला-यजमान के कटि प्रदेश में बाँधने के लिये चार हाथ की मुञ्ज से वेणी सदृश गुँथी रस्सी।

106—तानूनस्र चमस:- इष्टि के अनन्तर सोलहों ऋत्विक् जिस घृत का स्पर्श कर परस्पर अद्रोह की शपथ लेते हैं उस घी को रखने का पात्र।

107—धर्मासन्दी:- धर्म सम्बन्धी सभी पात्रों को रखने के लिये तीन हाथ ऊँचा गूलर का बना आसन विशेष।

108-ध्रवा—करण काष्ठ का बना जुहू के सदृश बाहुप्रमाण स्रुक, जो यज्ञ के अन्त तक रखी जाती है।

Friday, August 3, 2018

शालिग्राम

1.- जिस शालिग्राम-शिला में द्वार–स्थान पर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्ल वर्ण की रेखा से अंकित और शोभा सम्पन्न दिखायी देती हों, उसे भगवान् “श्रीगदाधर का स्वरूप” समझना चाहिये।

2.- “संकर्षण मूर्ति” में दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है।

3.-  “प्रद्युम्न” के स्वरूप में कुछ–कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्र का चिह्न सूक्ष्म रहता है।

4. – “अनिरुद्ध की मूर्ति” गोल होती है और उसके भीतरी भाग में गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वार भाग में नीलवर्ण और तीन रेखाओं से युक्त भी होती है।

5. – “भगवान् नारायण” श्याम वर्ण के होते हैं, उनके मध्य भाग में गदा के आकार की रेखा होती है और उनका नाभि–कमल बहुत ऊँचा होता है.

6. – “भगवान् नृसिंह” की मूर्ति में चक्र का स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच बिन्दुओं से युक्त होते हैं. ब्रह्मचारी के लिये उन्हीं का पूजन विहित है. वे भक्तों की रक्षा करनेवाले हैं।

7. – जिस शालिग्राम–शिला में दो चक्र के चिह्न विषम भाव से स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों, वह “वाराह भगवान् का स्वरूप” है, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है।

8.-  “कच्छप” की मूर्ति श्याम वर्ण की होती है. उसका आकार पानी के भँवर के समान गोल होता है. उसमें यत्र–तत्र बिन्दुओं के चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठ-भाग श्वेत रंग का होता है।

9. – “श्रीधर की मूर्ति” में पाँच रेखाएँ होती हैं।

10.- “वनमाली के स्वरूप” में गदा का चिह्न होता है।

11. – गोल आकृति, मध्यभाग में चक्र का चिह्न तथा नीलवर्ण, यह “वामन मूर्ति” की पहचान है।

12.- जिसमें नाना प्रकार की अनेकों मूर्तियों तथा सर्प शरीर के चिह्न होते हैं, वह भगवान् “अनन्त की” प्रतिमा है.

13. – “दामोदर” की मूर्ति  स्थूलकाय एवं नीलवर्ण की होती है।उसके मध्य भाग में चक्र का चिह्न होता है, भगवान् दामोदर नील चिह्न से युक्त होकर संकर्षण के द्वारा जगत् की रक्षा करते हैं।

14. –जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी–लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदि से युक्त एवं स्थूल है, उस शालिग्राम को“ब्रह्मा की मूर्ति” समझनी चाहिये।

15. – जिसमें बृहत छिद्र, स्थूल चक्र का चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह “श्रीकृष्ण का स्वरूप” है. वह बिन्दुयुक्त और बिन्दुशून्य दोनों ही प्रकार का देखा जाता है।

16. – “हयग्रीव मूर्ति” अंकुश के समान आकार वाली और पाँच रेखाओं से युक्त होती है।

17. – “भगवान् वैकुण्ठ” कौस्तुभमणि धारण किये रहते हैं. उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती है. वह एक चक्र से चिह्नित और श्याम वर्ण की होती है।

18. – “मत्स्य भगवान्” की मूर्ति बृहत कमल के आकार की होती है. उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हार की रेखा देखी जाती है।

19.- जिस शालिग्राम का वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भाग में एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रों के चिह्न से युक्त हो, वह भगवान् “श्रीरामचन्द्र जी” का स्वरूप है, वे भगवान् सबकी रक्षा करनेवाले हैं।

20. – द्वारिकापुरी में स्थित शालिग्राम स्वरूप “भगवान् गदाधर”को नमस्कार है, उनका दर्शन बड़ा ही उत्तम है, भगवान् गदाधर एक चक्र से चिह्नित देखे जाते हैं।

Friday, January 19, 2018

पूजा संबंधी बातें

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।।पूजा से जुड़ी हुईं अति महत्वपूर्ण बातें।।

★ एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।

★ सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।

★ बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।

★ जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।

★ जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।

★ जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।

★ संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।

★ दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।

★ यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।

★ शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है,

★ कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।

★ भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।

★  देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।

★  किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।

★  एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए ।

★ बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।

★ शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।

★ शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंुकुम नहीं चढ़ती।

★ शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवी जी  को आक तथा मदार और सूर्य भगवानको तगर के फूल नहीं चढ़ावे।

★ अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावंे।

★ नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।

★ विष्णु भगवान को चावल गणेश जी  को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण  को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।

★ पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।

★ किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।

★पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।

★ सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।

★ गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चढ़ती हैं।

★ पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।

★ दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।

★ सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करनी चाहिए।

★ पूजन करनेवाला ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।

★ पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।

★ घी का दीपक अपने बांयी ओर तथा देवता को दाहिने ओर रखें एवं चांवल पर दीपक रखकर प्रज्वलित करें।

आप सभी को निवेदन है अगर हो सके तो और लोगों को भी आप इन महत्वपूर्ण बातों से अवगत करा सकते हैं
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Thursday, November 23, 2017

अग्नि

                -:अग्नि की उत्पत्ति तथा उनके माता पिता :-

श्री पार्वत्युवाच-कस्मिन् मासे कस्मिन् पक्षे कस्मिन तिथौ।
कस्मिन् वासरे कस्मिन् नक्षत्रे कस्मिन् लग्ने, उत्पनौ असौ।।2।।

एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये। शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया। तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र त तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।

श्री महादेव उवाच-
आषाढ़ मासे कृष्ण पक्षे, अर्द्ध रात्रौ मीन लग्ने चतुर्दश्यां शनि वासरे रोहिणी नक्षत्रे, उध्र्वमुखे दृष्ट पाताले अगोचरन्नामाग्नि।3।
श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई।

श्री पार्वत्युवाच-कातस्य माता क्वतस्य पिता क्वतस्य गोत्र। कति जिह्वा प्रकाशित।4।

श्री महादेव उवाच-अरणस माता वरूणष्पिता शाण्डिल्य गोत्रे। वनस्पति पुत्रम्, पावकनामकम् वसुन्धरम्। 5।

उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है? तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है?

श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है,  अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है। शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है। ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है।

चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिद्धा बद्धो वृषभोरोरवीति महादेवो मत्र्यां आविवेश।।6।।

इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान  यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है। इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है इसलिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है। जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है। इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।

निखिल ब्रह्माण्डमुदरे यस्य द्वादश लोचनं सप्त जिह्वा।7। काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधुम्रवर्णा। स्फुलिंगिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वा।8।

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है। उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है ‘‘अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है। जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है। उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है। सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली,  कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा,  स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी  इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है। ,,

प्रथमस्तु घृतम् द्वितीये यवम्, तृतिये तिलम्, चतुर्थे दधि, पंचमें क्षीरम्। षष्ठे श्री खंडम्, सप्तमें मिष्ठान्नम् एतानि सप्त अग्नेर्भोजनानि। एतै सप्त जिह्वा प्रकाश्यन्ते। 9।

इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है। जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते हैं।

ऊध्र्व मुखाधोमुखाभिमुखैः साहायं करोति।
घृत मिष्ठान्नादि पदार्थाः। महा विष्णु मुखे प्रविशन्ति।
सर्वे देवा ब्रह्मा विष्णुः महेश्वरादयस्तृप्यन्ति।10।

भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं। इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।

Thursday, November 9, 2017

पंचमुखी हनुमान

हनुमान जी के पाँच मुख का अभिप्राय एवं पाँचों मुखों की भक्ति से होनेवाले लाभ ।।

मित्रों, कलियुग में पवनपुत्र हनुमान, मां भगवती और बाबा भोलेनाथ की पूजा-आराधना का विशेष एवं तत्काल फल प्राप्ति होना बताया गया है । भगवान शिव के अवतार हनुमान जी ऊर्जा के प्रतीक माने गये हैं । उनकी आराधना से बल, कीर्ति, आरोग्य और निर्भीकता प्राप्त होती है ।।

इनका विराट स्वरूप पाँच मुख पाँच दिशाओं में हैं । इनका सभी रूप एक-एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी और दो भुजाओं वाला है । यह पाँच मुख क्रमशः नरसिंह, अश्व, गरुड, वानर और वराह रूप का है । इनके पांच मुख पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और उर्ध्व दिशा में प्रतिष्ठित माने जाते हैं ।।

पूर्व की ओर का मुख वानर का हैं, जिसकी आभा करोडों सूर्यों के तेज के समान हैं । इनका पूजन करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है । पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का हैं, जो भक्तिप्रद, संकट निवारक माना गया हैं । गरुड की तरह इनको भी अजर-अमर माना गया हैं । उत्तर की ओर का मुख शूकर का है, इनकी आराधना करने से अपार धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, यश, दिर्धायु प्रदान करने वाला एवं उत्तम स्वास्थ्य देने में समर्थ माना गया हैं ।।

दक्षिणमुखी स्वरूप भगवान नृसिंह का है, जो भक्तों के भय, चिंता, परेशानी को दूर करता हैं । श्री हनुमान का उर्ध्व मुख घोडे के समान हैं, इनका यह स्वरुप ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर प्रकट हुआ था । मान्यता यह है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए थे । ऐसे पंचमुखी हनुमान रुद्र कहलाने वाले बडे कृपालु और दयालु माने गये हैं ।।

पंचमुखी हनुमान जी के स्वरुप के विषय में एक पौराणिक कथा मिलती है । एक बार पाँच मुख वाला एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ । उसने तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान माँगा कि मेरे रूप जैसा ही कोई व्यक्ति मुझे मार सके । ऐसा वरदान प्राप्त करके वह समग्र लोक में भयंकर उत्पात मचाने लगा । सभी देवताओं ने भगवान से इस कष्ट से छुटकारा मिलने की प्रार्थना की । तब प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, अश्व, गरुड और शूकर का पंचमुख स्वरूप धारण किया ।।

पंचमुखी हनुमान की पूजा-अर्चना से सभी देवताओं की उपासना के बराबर फल मिलता है । हनुमान जी के पाँचों मुखों में तीन-तीन सुंदर आंखें आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों प्रकार के तापों से छुटकारा दिलाने वाली हैं । श्री हनुमानजी का ये स्वरुप हम मनुष्यों के समस्त विकारों को दूर करने वाले माने गये हैं ।।

हम सभी भक्तों को शत्रुओं का नाश करने वाले तथा सभी मनोकामना को पूर्ण करनेवाले श्रीहनुमान जी महाराज का हमेशा स्मरण करना चाहिए । पंचमुखी हनुमान जी की उपासना से पूर्व में किए गए सभी बुरे कर्म एवं चिंतन के दोषों से मुक्ति मिलती हैं । पांच मुख वाले हनुमान जी की प्रतिमा धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी अद्भुत चमत्कारिक मानी गई है । अत: इनकी उपासना हर प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करनेवाला है ।।